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________________ विषय खंड तुलनात्मक दृष्टि से जन दर्शन - को ही माना है, परन्तु जैन दर्शन में अजीवके पांच भेद है, और इन पांचमें पुद्गल तो अनंतानंत परमाणुमय है । सांख्य केवल दोही तत्त्व स्वीकार करता है, जब कि जैन दर्शन में अधिक तत्त्व है। सांख्य मत में आत्मा निर्विकार तथा निष्क्रिय मानी गई है, परन्तु जैन दर्शन का कथन है कि उसका स्वभाव ऐसा हे कि वह परिपूर्णता की प्राप्ति के लिय उद्योग करे, इतना ही नहीं परन्तु साथ ही वह अनंत क्रियाशक्तिका आधार है। जैन तथा चार्वाक जैन और चार्वाक दर्शन के बीच यदि कोई सादृश्य भी है तो वह इतना ही कि. चार्वाक की भांति जैन दर्शन में भी वैदिक क्रियाकांड की निरर्थकता बताई गई है । भली प्रकार खोज करें तो पत्ता चलेगा कि जैन दर्शन चार्वाककी भांति मात्र निषेधात्मक ही नहीं है । अंधश्रद्धा तथा अंधक्रियानुरागसे मनुष्य की बुद्धी तथा विवेकशक्ति का अतुल अपमान होता है, इस दृष्टि से जैन दर्शनने तो कर्मकांडका विरोध किया है। सर्व प्रथम तो जैन दर्शनने इन्द्रिय सुख तथा विलासका अवज्ञापूर्वक परिहार किया है । चार्वाक दर्शन का यह ध्येय नहीं है । अर्थरहित वैदिक, क्रियाकलापका विरोध करनेमें चार्वाक भले ही उचित हो परन्तु तत्पश्चात् किसी गंभीर विषय पर विचार करनेकी इसे नहीं सूझी । वैदिक क्रियाकांड कैसे ही हो, परन्तु इनसे लोगोंकी लालसा कुछ वशमें रहती। स्वच्छंद इन्द्रियविलासका मार्ग कुछ वशमें रहती। स्वच्छंद इन्द्रियविलासका मार्ग कुछ कंटकमय बनता । चार्वाक दर्शनको यह तर्कसंगत नहीं लगा, अंतः जैन दर्शन तथा चार्वाक दर्शनमें कोई सादृश्य है ही नहीं। जैन दर्शन तथा न्यायदर्शन नैयायिक अनेक आत्माओंकी स्वतन्त्र सत्तामें विश्वास रखते हैं । इस अनेकता की दृष्टिसे जैनदर्शनमें तथा न्यायदर्शनमें मतैक्य है। परमाणु, दिशा, काल, गति और आत्मादिक तत्त्वविचारमें जैन दर्शन तथा न्याय दर्शनके वीच बहुत कुछ समानता है । जैनदर्शनकी तरह न्यायदर्शनमें युक्तिप्रयोगको अच्छा सा पद प्राप्त है, फिरभी दोनों में कितना ही भेद है । स्याद्वाद अथवा सप्तभंगनयनामक जो सुविख्यात युक्तिबादका अविष्कार जैनदर्शन में दिखाई पड़ता है वह न्यायदर्शनमें भी कहां? फिर नैयायिक आत्माका अनेकत्व स्वीकार करते हैं, परन्तु साथ २ अन्य दर्शनोंकी भाँति आत्माको सर्वव्यापक भी मानते हैं । दूसरी ओर जैनदर्शन आत्मा को स्वदेहपरिमाण में मानता है । जैनदर्शन कहता है कि आत्मा सर्वगत नहीं है क्योंकि उसके गुण सबमें तथा सर्वत्र प्राप्त नहीं हो सकते है। जिसके गुण सर्वत्र उपलब्ध नहीं, वह सर्वगत नहीं होता जैसे धडा. आत्माके गुण सर्वत्र उपलब्ध नहीं होते है । अतः आत्मा सर्वगत नहीं है। जो आत्मा सर्वगत होती है तो उसके गुण भी सर्वत्र उपलब्ध होते हैं । जैसे आकाश । नैयायिक आत्माको कूटस्थनित्य मानते हैं, जव कि जैन दर्शन आत्माको कूटस्थनित्य मानता ही नहीं । आत्मा संकोच तथा विस्तारशील है, जिससे एक शरीरसे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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