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________________ समाज, साधना और सेवा : जैनधर्म के परिप्रेक्ष्य में डॉ. सागरमल जैन निदेशक, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी वैयक्तिकता और सामाजिकता दोनों ही मानवीय जीवन प्रधान है और उसका लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार है,किंतु इस के अनिवार्य अंग हैं। पाश्चात्य विचारक ब्रेडले का कथन है कि आधार पर यह मान लेना कि जैन धर्म असामाजिक है या 'मनुष्य मनुष्य नहीं है यदि वह सामाजिक नहीं है।" मनुष्य उसमें सामाजिक संदर्भ का अभाव है, नितांत भ्रमपर्ण होगा। समाजमें ही उत्पन्न होता है, समाज में ही जीता है और समाज जैन साधना यद्यपि व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास की बात में ही अपनाविकास करता है। वह कभी भी सामाजिक जीवन करती है किंतु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वह सामाजिक से अलग नहीं हो सकता है। तत्वार्थ सूत्र में जीवन की कल्याण की उपेक्षा करती है। विशिष्टता को स्पष्ट करते हए कहा गया है कि पारस्परिक यदि हम मनुष्य को सामाजिक प्राणी मानते हैं और धर्म साधना ही जीवन का मूलभूत लक्षण है [परस्परोपग्रहो को 'वर्मो धारयते प्रजा' के अर्थ में लेते हैं तो उस स्थिति में जीवानाम ५/२१] व्यक्ति में राग के, द्वेष के तत्व अनिवार्य धर्म का अर्थ होगा--जो हमारी समाज-व्यवस्था को बनाये रूप से उपस्थित हैं किंतु जब द्वेष का क्षेत्र संकुचित होकर रखता है, वही धर्म है। वे सब बातें जो समाज-जीवन में राग का क्षेत्र विस्तृत होता है तब व्यक्ति में सामाजिक चेतना बाधा उपस्थित करती हैं और हमारे स्वार्थों को पोषण देकर का विकास होता है और यह सामाजिक चेतना वीत- हमारी सामाजिकता को खंडित करती हैं, समाज-जीवन में रागता की उपलब्धि के साथ पूर्णता को प्राप्त करती है, क्यों अव्यवस्था और अशांति के कारणभूत होती हैं, अधर्म हैं। कि वीतरागता की भूमिका पर स्थित ही होकर निष्काम की इसीलिए घृणा, विद्वेष, हिंसा, शोषण, स्वार्थपरता आदि को भावना और कर्तव्य बुद्धि से लोक-मंगल किया जा सकता अधर्म और परोपकार, करुणा, दया, सेवा आदि को धर्म कहा है। अत: जैन धर्म का, वीतरागता और मोक्ष का, आदर्श गया है। क्योंकि जो मूल्य हमारी सामाजिकता की स्वाभासामाजिकता का विरोधी नहीं है। विक वृत्ति का रक्षण करते हैं वे धर्म हैं और जो उसे खंडित मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसके व्यक्तित्व का करते हैं वे अधर्म हैं । यद्यपि यह धर्म की व्याख्या दूसरों से निर्माण समाज-जीवन पर आधारित है। व्यक्ति जो कुछ हमारे संबंधों के संदर्भ में है। और इसलिए इसे हम सामाबनता है वह अपने सामाजिक परिवेश के द्वारा ही बनता जिक-धर्म भी कह सकते हैं। है। समाज ही उसके व्यक्तित्व और जीवन-शैली का निर्माता जैन धर्म सदैव यह मानता रहा है कि साधना से प्राप्त है। यद्यपि जैन-धर्म सामान्यतया व्यवितनिष्ठ और निवृत्ति सिद्धि का उपयोग सामाजिक कल्याण की दिशा में होना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012073
Book TitleShantilal Vanmali Sheth Amrut Mahotsav Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherSohanlal Jain Vidya Prasarak Samiti
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
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