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________________ है कि उक्त १४ दिगम्बर-मान्य अंगबाह्य आगामों में से अधिकांश श्वेताम्बरों के मत से सुरक्षित हैं। उनका विच्छेद हुआ ही नहीं। दिगम्बरों ने मूलागम का लोप मानकर भी कुछ ग्रंथों को 'आगम' जितना ही महत्त्व दिया है और उन्हें जैनवेद की संज्ञा देकर प्रसिद्ध चार अनुयोगों में विभक्त किया है। वह इस प्रकार है : - पद्मपुराण ( रविषेण), हरिवंश पुराण ( जिनसेन), आदिपुराण (जिनसेन), उत्तरपुराण (गुणभद्र ) । २ - करणानुयोग पूर्वप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, जय धवल । ३ - द्रव्यानुयोग – प्रवचनसार, समयसार नियमसार, पंचास्तिकाय (ये चारों आ० कुन्द कुन्दकृत), तत्त्वार्थाधिगम सूत्र ( उमास्वामी) और उसकी समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंक; विद्यानन्द आदिकृत टीकाएँ, आप्तमीमांसा (समन्तभद्र ) " और उसकी अकलंक, विद्यानन्द आदि कृत टीकाएँ । ४- चरणानुयोग — मूलाचार (बटकेर ), त्रिवर्णाचार, रत्नकरण्ड श्रावकाचार । ४३ १ - प्रथमानुषोष इस सूची से स्पष्ट है कि इसमें दशवीं शताब्दी तक लिखे गए ग्रंथों का समावेश हुआ है। स्थानकवासी के आगमग्रन्थ श्वेताम्बर स्थानकवासी संप्रदाय के मत से दृष्टिवाद को छोड़कर सभी अंग सुरक्षित हैं । अंगबाह्य के विषय में इस संप्रदाय का मत है कि सिर्फ निम्नलिखित ग्रन्थ ही सुरक्षित हैं: 3 अंगबाह्य में १२ उपांग, ४ छेद ४ मूल और १ आवश्यक इस प्रकार सिर्फ २१ ग्रन्थ का समावेश है वह इस प्रकार से है : १२ उपांग- १ औपपातिक, २ राजप्रश्नीय, ३ जीवा भिगम, ४ प्रज्ञापना, ५ सूर्यप्रज्ञप्ति ६ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति ७ चन्द्रप्रज्ञप्ति ८ निरयावली ६ कल्पावतंसिका, १० पुष्पिका, ११ पुष्पचूलिका और १२ वृष्णिदशा । Jain Education International " शास्त्रोद्वार-मीमांसा में (१०४१) आ० अमोलऋषि ने लिखा है कि, चन्द्रप्राप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति ये दोनों ज्ञाताधर्म के उपांग हैं। इस अपवाद को ध्यान में रखकर क्रमश: आचारांग का औपपातिक इत्यादि कम से अंगों के साथ उपांगों की योजना कर लेना चाहिए। ४ छेद – १ व्यवहार, २ बृहत्कल्प, ३ निशीथ, ४ दशाश्रुतस्कन्ध । ४ मूल - १ दशवैकालिक, २ उत्तराध्ययन, ३ नंदीसूत्र ४ अनुयोग द्वार १ आवश्यक, इस प्रकार सब मिलाकर २१ अंगबाह्यग्रंथ वर्तमान में हैं । २१ अंगबाह्य ग्रन्थों को जिस रूप में स्थानकवासियों ने माना है, श्वेताम्बर मूर्तिपूजक उन्हें उसी रूप में मानते हैं । इसके अलावा कई ऐसे ग्रंथों का भी अस्तित्व स्वीकार किया है जिन्हें स्थानकवासी प्रमाणभूत नहीं मानते या लुप्त मानते हैं । स्थानकवासी के समान उसी संप्रदाय का एक उपसंप्रदाय तेरहपंथ को भी ११ अंग और २१ अंगवाह्य ग्रन्थों का ही अस्तित्व और प्रामाण्य स्वीकृत है, अन्य ग्रंथों का नहीं । इन दोनों संप्रदायों में नियुक्ति आदि टीका ग्रन्थों का प्रामाण्य अस्वीकृत है । यद्यपि वर्तमान में कुछ स्थानकवासी साधुओं की, आगम के इतिहास के प्रति दृष्टि जाने से तथा आगमों की नियुक्ति जैसी प्राचीन टीकाओं के अभ्यास से, दृष्टि कुछ उदार हुई है। और वे यह स्वीकार करने लगे हैं कि दशवकालिक आदि शास्त्र के प्रणेता गणधर नहीं किंतु शय्यंभव आदि स्थविर हैं तथापि जिन लोगों का आगम टीका-टिप्पणियों पर कोई विश्वास नहीं तथा जिन्हें संस्कृत टीकाग्रंथों के अभ्यास के प्रति नफरत है ऐसे साम्प्रदायिक मनोवृत्ति वालों का यही विश्वास प्रतीत होता है कि अंग और अंगबाह्य दोनों प्रकार के आगम के कर्ता गणधर ही थे, अन्य स्थविर नहीं ।" श्वेताम्बरों के आगम-ग्रंथ यह तो कहा ही जा चुका है कि अंगों के विषय में किसी का भी मतभेद नहीं । अतएव श्वेताम्बरों को भी पूर्वोक्त १२ अंग मान्य हैं जिन्हें दिगम्बरादि ने माना है। फर्क यही है कि दिगम्बरों ने ११ अंगों का पूर्वोक्त क्रम से विच्छेद माना तब श्वेताम्बरों ने सिर्फ अंतिम अंग का विच्छेद माना । उनका For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012073
Book TitleShantilal Vanmali Sheth Amrut Mahotsav Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherSohanlal Jain Vidya Prasarak Samiti
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
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