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________________ जैनधर्म का केन्द्रबिन्दु 'समता (स्व०)-डॉ० इन्द्रचन्द्र शास्त्री एम० ए०, पी-एच० डी० एक शब्द में जैनधर्म का केन्द्रबिन्दु 'समता' है । इसी को और चारित्र-तीनों को आवश्यक मानता है ।श्रद्धा का अर्थ लक्ष्य में रखकर दर्शन और धर्म का विकास हुआ। दर्शन ने है दष्टि का सत्य पर केन्द्रित होना। जो व्यक्ति सत्य अथवा दृष्टि प्रदान की और धर्म ने उस पर चलने का मार्ग प्रस्तुत आत्मा के साक्षात्कार को सर्वोपरि मानता है वह 'सम्यग्किया। दृष्टि' है। सम्यग् ज्ञान' सत्य की पहिचान कराता है और विषमता का कारण मोह है। विचारों का मोह एकांत 'सम्यक् चारित्र' उसे प्राप्त करने का बल प्रदान करता है। या दृष्टि-दोष है। व्यवहार में मोह चरित्न-दोष है। इन्हें दूर करके आत्मा परमात्मा बन सकता है। 'समता' को जीवन में ३. मनुष्य की श्रेष्ठता उतारने के निम्नलिखित १५ सूत्र हैं :-- जैनधर्म मनुष्य को सर्वोपरि मानता है। 'देवता भी चरित्र-सम्पन्न मनुष्य के चरणों में सिर नमाते हैं। इस संदेश १. धर्म ही उत्कृष्ट मंगल है ने कल्पित शक्तियों से वरदान प्राप्त करने के लिये गिड़गिड़ाते उत्कृष्ट मंगल का अर्थ है जिसके द्वारा स्व और पर सभी मानव को ऊँचा उठाया है। राजनीतिक परिभाषा में यह का कल्याण हो । जो आदि, मध्य तथा अंत-तीनों अवस्थाओं लोकतंत्र का प्रथम तत्त्व है। में हितकारी हो। वैदिक परम्परा का स्वर है-'सत्यमेव जयते नानतम् ।' इसके विपरीत जैन पर परा का स्वर है- ४. सात तत्त्व"सच्चं लोगम्मि सारभूयं" अर्थात् दुनिया में सत्य ही सार है। साधना की दष्टि से सात तत्त्वों का विधान है। प्रथम जीत में दूसरे की हार छिपी है। ऐसा तत्त्व सबके लिये मंगल दो-जीव और अजीव विश्व के घटक हैं। शेष पाँच हैंनहीं हो सकता । जैन परम्परा उसके स्थान पर सारभूत शब्द १. आश्रव, २. बन्ध, ३. संवर, ४. निर्जरा, ५. मोक्ष । रखती है अर्थात् दुनिया में यही सार है, शेष निस्सार । आस्रव में पतन के पाँच कारण बताये गये हैं• निस्सार से लक्ष्य हटाकर उसे सार पर केन्द्रित करना ही (१) मिथ्यात्व–अर्थात विपरीत श्रद्धा । 'धर्म' है। (२) अविरति-अर्थात् अनुशासन-हीनता। (३) प्रमाद-अर्थात् आलस्य । २. रत्नत्रय (४) कषाय-अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ । उपर्युक्त सत्य की प्राप्ति के लिये जैनधर्म श्रद्धा, ज्ञान (५) योग–अर्थात् मन, वचन और शरीर कीप्रवृत्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012073
Book TitleShantilal Vanmali Sheth Amrut Mahotsav Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherSohanlal Jain Vidya Prasarak Samiti
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
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