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________________ हिंसा और धर्म यह तो विरोध है-इसका भान लोगों को कृष्णादि महापुरुषों के पौराणिक चरित्र की प्रतिस्पर्धा में कराना यही उनके उपदेश का सार है। आचार्यों ने उनके चरित्र में वर्णित की हैं। उनकी महत्ता का जैन-संघ मापदण्ड ये बातें नहीं। किन्तु एक सामान्य मानवी से एक उनके उपदेश को सुन कर वीरांगक, वीरयश, संजय, महापुरुष में उनका परिवर्तन जिन विशेषताओं से हुआ उन एणेयक, सेय, शिव, उदयन और शंख इन आठ समकालीन विशेषताओं में ही उनकी महत्ता है। राजाओं ने प्रव्रज्या अंगीकार की थी। और अभयकुमार, तत्कालीन धार्मिक समाज में छोटे-मोटे अनेक धर्ममेघकुमार आदि अनेक राजकुमारों ने भी घर-बार छोड़ कर प्रवर्तक थे। किन्तु भगवान् बुद्ध और भगवान् महावीर का व्रतों को अंगीकार किया था। स्कंधक प्रमुख अनेक तापस प्रभाव अभूतपूर्व था। उन दोनों के श्रमण-संघों ने ब्राह्मणतपस्या का रहस्य जानकर भगवान के शिष्य बन गये थे। धम म स हिसा का नाम मिटा देने का अत्यग्र प्रयत्न किया। अनेक स्त्रियाँ भी संसार की असारता को समझकर उनके । परिणाम यह है कि कालिका या दुर्गा के नाम जो कुछ बलि श्रमणी-संघ में शामिल हो गई थीं। उनमें अनेक तो राज- चढ़ाई जाता है उसका छाड़ कर धर्म के नाम पर हिसा का पुत्रियाँ भी थीं। उनके गृहस्थ अनुयायियों में मगधराज निमूलन हा हा गया। जिन यज्ञा का पशुवध के बिना पूर्णाहूति णिक और कणिक मालिपति टक अवस्तिपति च. हो नहीं सकती थी ऐसे यज्ञ भारतवर्ष से नामशेष हो गये। प्रद्योत आदि मुख्य थे। आनन्द आदि वैश्य श्रमणोपासकों पुष्यमित्र-जैसे कट्टर हिन्दू राजाओं ने उन नामशेष यज्ञों को के अलावा शकडाल-पूत्र जैसे कभकार भी उपासक-संघ में जिलाने का प्रयत्न करके देखा, किन्तु यह तो श्रमण-संघों के शामिल थे। अर्जुन माली जैसे दुष्ट से दुष्ट हत्यारे भी उनके अप्रतिहत प्रभाव, उनके त्याग और तपस्या का फल है कि वे अप्रातहत प्रभाव, उनक त्य पास वैरका त्याग करके शान्तिरसका पान कर, क्षमा को । भी उन हिंसक यज्ञों का पुनर्जीवन दीर्घकालीन न रख सके। धारण कर दीक्षित हुए थे। शूदों और अतिशूद्रों को भी उनके कर्मवाद संघमें स्थान था। उनका संघ राढादेश, मगध, विदेह, काशी, कोशल, भगवान् ने तो मनुष्य के भाग्य को ईश्वर और देवों के शूरसेन, वत्स, अवन्ती आदि देशों में फैला हआ था। उनके हाथ में से निकाल कर खुद मनुष्य के हाथ में रखा है। किसी देव की पूजा या भक्ति से या उनको खून से तप्त करके यदि विहार के मुख्य क्षेत्र मगध, विदेह, काशी, कोशल, राढादेश और वत्स देश थे। कोई चाहे कि उसको सुख की प्राप्ति होगी तो भगवान् तीर्थकर होने के बाद ३० वर्ष पर्यन्त सतत विहार करके महावीर ने उसे स्पष्ट ही कह दिया है कि हिंसा से तो प्रति हिंसा को उत्तेजना मिलती है, लोगों में परस्पर शत्रुता बढ़ती लोगों को आदि में कल्याण, मध्य में कल्याण और अन्त में कल्याण ऐसे 'अहिंसक धर्म' का उपदेश कर इहजीवन-लीला है और सुख की कोई आशा नहीं। सुख चाहते हो तो सब समाप्त करके ७२ वर्ष की आयु में मोक्ष-लाभ किया। लोगों जीवों से मैत्री करो, प्रेम करो, सब दुःखी जीवों के ऊपर ने दीपक जलाकर उनको बिदाई दी। तब से दीपावली पर्व करुणा रक्खो। ईश्वर में और देवों में यह सामर्थ्य नहीं कि वे तुम्हें सुख या दुःख दे सकें। तुम्हारे कर्म ही तुम्हें सुखी और प्रारम्भ हुआ है, ऐसी परम्परा है। दुःखी करते हैं। अच्छा कर्म करो, अच्छा फल पाओ। और चरित्र की विशेषता बुरा करके बुरा नतीजा भुगतने के लिये तैयार रहो। भगवान महावीरके चरित्र की विशेषता-उनके जन्मके समय देवलोक से देव-देवियों ने आकर उनका जन्म-महोत्सव जीव ही ईश्वर है किया, स्नानक्रिया के समय बालक महावीर ने मेरुकम्पन और ईश्वर या देव-? वह तो तुम ही हो। तुम्हारी किया, साधना के समय अनेक इन्द्रादि देवों ने उसकी सेवा अनन्त शक्ति, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख प्रच्छन्न हैं । उनका की मांग की, उनके समवसरण में देव-देवियों का आगमन आविर्भाव करके तुम ही ईश्वर हो जाओ। फिर तुममें और • हुआ, उनके शरीर में सफेद लोहू था, उनको दाढ़ी मूंछ होते मुझमें कोई भेद नहीं, हम सभी ईश्वर हैं। भक्ति या पूजा ही न थे- इत्यादि बातों में नहीं। ये बातें तो उनके मानवी करना ही है तो अपने आत्मा की करो। उसे राग और द्वेष, चरित्र को अलौकिक रूप देने के लिये, या भारत के अन्य मोह और माया, तृष्णा और भय से मुक्त करो-इससे बढ़कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012073
Book TitleShantilal Vanmali Sheth Amrut Mahotsav Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherSohanlal Jain Vidya Prasarak Samiti
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
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