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________________ मित्र-त्रिपुटी भगवान् महावीर प्रो० दलसुख मालवणिया श्री शांतिभाई, श्री महासुखभाई, श्री पं० दलसुखभाई श्रमण-संस्कृति और ईश्वर नहीं और होगा भी नहीं। इसमें तो सदाकाल धर्मोद्धारक की श्रमण-संस्कृतिकी ही यह विशेषता है कि उसमें प्राकृतिक आवश्यकता है। सुधारक के लिये, क्रान्ति के झंडाधारी के आधिदैविक देवों या नित्यमुक्त ईश्वरको पूज्यका स्थान नहीं। लिये, इस संसार में हमेशा अवकाश है। समकालीनों को उस उसमें तो 'एक सामान्य ही मनुष्य अपना चरम विकास करके सुधारक या क्रान्तिकारी को उतनी पहचान नहीं होती जितनी आम-जनता के लिये ही नहीं किन्तु यदि किसी देवका आनेवाली पीढ़ी को होती है। जबतक वह जीवित रहता है अस्तित्व हो तो उसके लिये भी वह पूज्य बन जाता है। उसके भी काफी विरोधी रहते हैं । कालबल ही उन्हें भगवान, इसी लिये इन्द्रादि देवों का स्थान श्रमण-संस्कृतिमें पूजक का बुद्ध या तीर्थंकर बनाता है । गरज यह कि प्रत्येक महापुरुषों है, पूज्य का नहीं। भारतवर्ष में राम और कृष्ण जैसे मनुष्य को अपनी समकालीन परिस्थिति की बुराइयों से लड़ना की पूजा ब्राह्मण संस्कृति में होने तो लगी किन्तु ब्राह्मणों ने पड़ता है, क्रान्ति करनी पड़ती है, सुधार करना पड़ता है। जो उन्हें कोरा मनुष्य, शुद्ध मनुष्य न रहने दिया। उन्हें मुक्त जितना कर सके उतना ही उसका नाम होता है। ईश्वर के साथ जोड़ दिया, उन्हें ईश्वर का अवतार माना श्रमण-संस्कृति का मन्तव्य है कि जो भी त्याग और गया। किन्तु इसके विरुद्ध श्रमणसंस्कृति के बुद्ध और महावीर तपस्या के मार्ग पर चल कर अपने आत्म-विकास की परापूर्ण पुरुष या केवल मनुष्य ही रहे। उनको नित्यबुद्ध, नित्य- काष्ठा पर पहुँचता है, वह पूर्ण बन जाता है। भगवान् मुक्तरूप ईश्वर कभी नहीं कहा गया, क्योंकि नित्य ईश्वर को महावीर और बुद्ध के अलावा समकालीन अनेक पूर्ण पुरुष इस संस्कृति में स्थान ही नहीं। हुए हैं, किन्तु आज उनका इतना नाम नहीं जितना उन दोनों समकालीन महापुरुषों का है। कारण यही है कि दूसरोंने अवतारवादका निषेध अपनी पूर्णता में ही कृतकृत्यता का अनुभव किया और उनको ___एक सामान्य मनुष्य ही ज बअपने कर्मानुसार अवतार समकालीन समाज और राष्ट्र के उत्थान में उतनी सफलता लेता है तब न मिली जितनी इन दो महापुरुषों को मिली। इन दोनों ने 'यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अपनी पूर्णता में ही कृतकृत्यता का अनुभव नहीं किया किन्तु अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥' समकालीन समाज और राष्ट्र के उत्थान में भी अपना पूरा -इस सिद्धान्त को अवकाश नहीं। संसार कभी स्वर्ग हआ बल लगाया। स्वयं और उनके शिष्यों ने चारों ओर पाद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012073
Book TitleShantilal Vanmali Sheth Amrut Mahotsav Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherSohanlal Jain Vidya Prasarak Samiti
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
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