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________________ तो है ही पर उसकी कल्पना जन्म-जन्मान्तर में अधिकाधिक सुख पाने की तथा प्राप्त सुख की अधिक से अधिक समय तक स्थिर रखने की होने से उसके धर्मानुष्ठानों को प्रवर्तक धर्म कहा गया है। प्रवर्तक धर्म का संक्षेप में सार यह है कि जो और जैसी समाज व्यवस्था हो उसे इस तरह नियम और कर्तव्यबद्ध बनाना कि जिससे समाज का प्रत्येक सभ्य अपनी-अपनी स्थिति और कक्षा में सुखलाभ करे और साथ ही ऐसे जन्मान्तर की तैयारी करे कि जिससे दूसरे जन्म में भी वह वर्तमान जन्म की अपेक्षा अधिक और स्थायी सुख पा सके। प्रवर्तक धर्म का उद्देश्य समाज व्यवस्था के साथ-साथ जन्मान्तर का सुधार करना है, न कि जन्मान्तर का उच्छेद। प्रवर्तक धर्म के अनुसार काम, अर्थ और धर्म, तीन पुरुषार्थ हैं । उसमें 'मोक्ष' नामक चौबे पुरुषार्थ की कोई कल्पना नहीं है। प्राचीन ईरानी आर्य जो अवस्ता को धर्मग्रंथ मानते थे और प्राचीन वैदिक आर्य जो मन्त्र और ब्राह्मणरूप वेद भाग को ही मानते थे, वे सब उक्त प्रवर्तक धर्म के अनुयायी हैं। आगे जाकर वैदिक दर्शनों में जो मीमांसादर्शन नाम से कर्मकाण्डी दर्शन प्रसिद्ध हुआ वह प्रवर्तक धर्म का जीवित रूप है । निवर्तक धर्म - निवर्तक धर्म ऊपर सूचित प्रवर्तक धर्म का बिल्कुल विरोधी है। जो विचारक इस लोक के उपरान्त लोकान्तर और जन्मान्तर मानने के साथ-साथ उस जन्मचक्र को धारण करने वाली आत्मा को प्रवर्तक धर्मवादियों की तरह तो मानते ही थे; पर साथ ही वे जन्मान्तर में प्राप्य, उच्च, उच्चतर और चिरस्थायी सुख से सन्तुष्ट न थे। उनकी दृष्टि यह थी कि इस जन्म या जन्मान्तर में कितना ही ऊँचा सुख क्यों न मिले, वह कितने ही दीर्घकाल तक क्यों न स्थिर रहे पर अगर वह सुख कभी न कभी नाश पाने वाला है तो फिर वह उच्च और चिरस्थायी सुख भी अन्त में निकृष्ट सुख की कोटि का होने से उपादेय हो नहीं सकता । वे लोग ऐसे किसी सुख की खोज में थे जो एक बार प्राप्त होने के बाद कभी नष्ट न हो। इस खोज की सूझ ने उन्हें मोक्ष पुरुषार्थ मानने के लिये बाधित किया। वे मानने लगे कि एक ऐसी भी आत्मा की स्थिति संभव है जिसे पाने के बाद फिर कभी जन्म-जन्मान्तर या देह धारण करना नहीं पड़ता। वे आत्मा की उस स्थिति को मोक्ष या जन्म - निवृत्ति कहते थे । प्रवर्तक धर्मानुयायी जिन उच्च और उच्चतर धार्मिक अनुष्ठानों से इस लोक तथा परलोक के उत्कृष्ट सुखों के लिये प्रयत्न करते थे उन धार्मिक अनुष्ठानों Jain Education International को निवर्तक धर्मानुयायी अपने साध्य मोक्ष या निवृत्ति के लिए न केवल अपर्याप्त ही समझते थे बल्कि वे उन्हें मोक्ष पाने में बाधक समझ कर उन सब धार्मिक अनुष्ठानों को आत्यन्तिक हेय बतलाते थे । उद्देश्य और दृष्टि में पूर्व-पश्चिम जितनाअन्तर होने से प्रवर्तक धर्मानुयायियों के लिए जो उपादेय वही निवर्तक धर्मानुयायिओं के लिए हेय बन गया। यद्यपि मोक्ष के लिए प्रवर्तक धर्म बाधक माना गया पर साथ ही मोक्षवादियों को अपने साध्य मोक्ष-पुरुषार्थ के उपाय रूप से किसी सुनिश्चित मार्ग की खोज करना भी अनिवार्य रूप से प्राप्त था । इस खोज की सूझ ने उन्हें एक ऐसा मार्ग, एक ऐसा उपाय सुझाया जो किसी बाहरी साधन पर निर्भर न था। वह एक मात्र साधक की अपनी विचारशुद्धि और वर्तन-शुद्धि पर अवलंबित था। यही विचार और वर्तन की आत्यन्तिक शुद्धि का मार्ग निवर्तक धर्म के नाम से या मोक्ष मार्ग के नाम से प्रसिद्ध हुआ । हम भारतीय संस्कृति के विचित्र और विविध तानेबाने की जांच करते हैं तब हमें स्पष्ट रूप से दिखाई देता है कि भारतीय आत्मवादी दर्शनों में कर्मकाण्डी मीमांसक के अलावा सभी निवर्तक धर्मवादी है। अवैदिक माने जानेवाले बौद्ध और जैन दर्शन की संस्कृति तो मूल में निवर्तक-धर्म स्वरूप है ही पर वैदिक समझे जाने वाले न्याय-वैशेषिक, सांख्ययोग तथा औपनिषद् दर्शन की आत्मा भी निवर्तक-धर्म पर ही प्रतिष्ठित है । वैदिक हो या अवैदिक सभी निवर्तक धर्म, प्रवर्तक-धर्म को या यज्ञयागादि अनुष्ठानों को अन्त में हेय ही बतलाते हैं। और वे सभी सम्यक् ज्ञान या आत्म-ज्ञान को तथा आत्मज्ञानमूलक अनासक्त जीवन व्यवहार को उपादेय मानते हैं एवं उसी के द्वारा पुनर्जन्म के चक्र से छुट्टी पाना सम्भव बतलाते हैं। . समाजगामी प्रवर्तक-धर्म ऊपर सूचित किया जा चुका है कि प्रवर्तक धर्म समाजगामी था। इसका मतलब यह था कि प्रत्येक व्यक्ति समाज में रहकर ही सामाजिक कर्तव्य जो ऐहिक जीवन से सम्बन्ध रखते और धार्मिक कर्तव्य जो पारलौकिक जीवन से सम्बन्ध रखते हैं, उनका पालन करे। प्रत्येक व्यक्ति जन्म से ही ऋषिऋण अर्थात् विद्याध्ययन आदि पितृ ऋण अर्थात् संततिजननादि और देव ऋण अर्थात् यज्ञयागादि बन्धनों से आबद्ध है। व्यक्ति को सामाजिक और धार्मिक कर्तव्यों का पालन करके अपनी कृपण इच्छा का संशोधन करना इष्ट है। पर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012073
Book TitleShantilal Vanmali Sheth Amrut Mahotsav Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherSohanlal Jain Vidya Prasarak Samiti
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
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