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________________ अपना नहीं बना है तो हमें यह निश्चित ही समझ लेना आवश्यक चूर्णि में सेवा के महत्व को स्पष्ट करते हुए कहा है चाहिए कि हमारे धर्म का अवतरण नहीं हुआ है। दूसरों की कि एक व्यक्ति भगवान का नाम-स्मरण करता है, भक्ति पीड़ा आत्मनिष्ठ अनुभूति से जागृत दायित्व-बोध की अन्तश्- करता है, किन्तु दूसरा वृद्ध और रोगी की सेवा करता है, चेतना के बिना सारे धार्मिक क्रियाकाण्ड पाखण्ड या ढोंग है। उन दोनों में सेवा करने वाले को ही श्रेष्ठ माना गया है, उनका धार्मिकता से दूर का रिश्ता नहीं है। जैन धर्म में क्योंकि वह सही अर्थों में भगवान की आज्ञा का पालन करता सम्यक-दर्शन (जो कि धार्मिकता की आधार-भूमि है) के जो है, दूसरों शब्दों में धर्ममय जीवन जीता है। पांच अंग माने गये है, उनमें समभाव और अनुकम्पा सबसे जैन समाज का यह दुर्भाग्य है कि निवृत्तिमार्ग या अधिक महत्वपूर्ण हैं । सामाजिक दृष्टि से समभाव का अर्थ संन्यास पर अधिक बल देते हुए उसमें, सेवा की भावना गौण है, दूसरों को अपने समान समझना। क्योंकि अहिंसा एवं लोक- होती चली गई—उसकी अहिंसा मात्र 'मत मारो' का निषेधक कल्याण की अंतश्चेतना का उद्भव इसी आधार पर होता है। उद्घोष बन गई। किन्तु यह एक भ्रान्ति ही है। बिना 'सेवा' आचारांग सूत्र में कहा गया है कि जिस प्रकार मैं जीना चाहता के अहिंसा अधूरी है और संन्यास निष्क्रियता है। जब संन्यास हैं,मरना नहीं चाहता, उसी प्रकार संसार के सभी प्राणी जीवन और अहिंसा में सेवा का तत्व जुड़ेगा तभी वे पूर्ण बनेंगे। के इच्छुक हैं और मृत्यु से भयभीत हैं, जिस प्रकार मैं सुख की प्राप्ति का इच्छुक हूं और दुख से बचना चाहता हूं उसी प्रकार संन्यास और समाज : संसार के सभी प्राणी सुख के इच्छुक हैं, और दुख से दूर रहना सामान्यतया भारतीय दर्शन के संन्यास के प्रत्यय को चाहते हैं। यही वह दृष्टि है जिस पर अहिंसा का, धर्म का समाज-निरपेक्ष माना जाता है किन्तु क्या संन्यास की धारणा और नैतिकता का विकास होता है। समाज निरपेक्ष है ? निश्चय ही संन्यासी पारिवारिक जीवन ___ जब तक दूसरों के प्रति हमारे मन में समभाव अर्थात् का त्याग करता है किन्तु इससे क्या वह असामाजिक हो समानता का भाव जागत नहीं होता, अनुकम्पा नहीं आती, जाता है ? संन्यास के संकल्प में वह कहता है कि "वित्तेषणा अर्थात उनकी पीड़ा हमारी पीड़ा नहीं बनती तब तक सम्यक्- पूतषणा लोकेषणा मया परित्यक्ता" अर्थात् मैं अर्थकामना, दर्शन का उदय भी नहीं होता, जीवन में धर्म का अवतरण मन्तान कामना और यणः कामना का सन्तान कामना और यशः कामना का परित्याग करता हैं। नहीं होता। असर लखनवी का यह निम्न शेर इस सम्बन्ध में जैन परम्परा के अनुसार वह सावद्ययोग या पापकर्मों को कितना मौजूं है त्याग करता है। किन्तु क्या धन-सम्पदा, सन्तान तथा यशईमां गलत उसूल गलत, इदुआ गलत । कीति की कामना का या पापकर्म का परित्याग समाज का इंसां की दिलदिही, अगर इंसां न कर सके ।। परित्याग है ? वस्तुतः समस्त एषणाओं का त्याग या पाप जब दूसरों की पीड़ा अपनी बन जाती है तो सेवा की कर्मों का त्याग स्वार्थ का त्याग है, वासनामय जीवन का भावना का उदय होता है । यह सेवा न तो प्रदर्शन के लिए त्याग है। संन्यास का यह संकल्प उसे समाज-विमुख नहीं होती है और न स्वार्थबुद्धि से होती है, यह हमारे स्वभाव का बनाता है, अपितु समाज कल्याण की उच्चतर भूमिका पर ही सहज प्रकटन होती है। तब हम जिस भाव से हम अपने अधिष्ठित करता है क्योंकि सच्चा लोकहित निस्वार्थता एवं शरीर की पीडाओं का निवारण करते हैं उसी भाव से दूसरों विराग की भूमि पर स्थित होकर ही किया जा सकता है। की पीड़ाओं का निवारण करते हैं, क्योंकि जो आत्म-बुद्धि भारतीय चिन्तन संन्यास को समाज-निरपेक्ष नहीं अपने शरीर के प्रति होती है वही आत्म-बुद्धि समाज के मानता। भगवान बुद्ध का यह आदेश "चरत्थ भिक्खवे चारिक सदस्यों के प्रति भी हो जाती है क्योंकि सम्यक् दर्शन के बहजन-हिताय बहजन-सुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय पश्चात आत्मवत् दृष्टि का उदय हो जाता है । जहाँ आत्मवत् देव मनस्सानं" (विनय पिटक महावग्ग) इस बात का प्रमाण दष्टि का उदय होता है वहाँ हिंसक बुद्धि समाप्त हो जाती है कि संन्यास लोकमंगल के लिए होता है। सच्चा संन्यासी है और सेवा स्वाभाविक रूप सेसाधना का अंग बन जाती है। वह है जो समाज से अल्पतम लेकर उसे अधिकतम देता है। जैन धर्म में ऐसी सेवा को निर्जरा या तप का रूप माना गया वस्तुतः वह कुटुम्ब, परिवार आदि का त्याग इसलिए करता है। इसे 'वैयावच्च' के रूप में जाना जाता है । मुनि नन्दिसेन है कि समष्टि होकर रहे, क्योंकि जो किसी का है, वह सबका की सेवा का उदाहरण तो जैन परम्परा में सर्वविश्रुत है। नहीं हो सकता, जो सबका है वह किसी का नहीं है । संन्यासी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012073
Book TitleShantilal Vanmali Sheth Amrut Mahotsav Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherSohanlal Jain Vidya Prasarak Samiti
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
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