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________________ महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व सौराष्ट्र : शत्रुञ्जय, सौरीपुर, नागद्रह, नवानगर, गिरनार आदि। राजस्थान : जैसलमेर, अमरसर, लौद्रवा, वीरमपुर, सांगानेर, चाटसू, तिमरी, मंडोवर, बीकानेर, नाल, रिणी, डीडवाना, जालौर, नागौर, लवेरा, मेड़ता, मेड़तारोड (फलवर्द्धि पार्श्वनाथ), नाकोड़ा, सेत्रावा, वरकाणा, बिलाड़ा, सांचोर, घंघाणी, नडुलाइ, आबू, अचलगढ़, देलवाड़ा, राणकपुर, नलोल, जीरावला, चंदवारि, लूणकरणसर आदि। सिन्ध : मुलतान, देरावर, उच्चनगर, सिद्धपुर, मरोठ आदि। गुजरात : पालनपुर, खंभात, पुरिमताल, आंकेट, ईडर, पाटण, भड़कुल, तारंगा, देवता, शंखेश्वर, सैरीसर, भोडुआ, कलिकुंड, गौड़ी पार्श्वनाथ, कंसारी, त्रंबावती, अजाहरा, मंगलोर, अहमदाबाद आदि। इसके अतिरिक्त श्री मोहनलाल दलीचंद देसाई ने कवि द्वारा रचित 'तीर्थमालास्तवन' में निर्दिष्ट सम्मेत शिखर, राजगह, क्षत्रियकुण्ड, पावापुरी, चम्पानगरी आदि स्थलों में पाद-भ्रमण करने का अनुमान किया है, वह उपयुक्त नहीं है। कारण, उपर्युक्त सर्व क्षेत्र तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध है। कविवर समयसुन्दर जिस-जिस तीर्थ का दर्शन करते हैं, वहाँ मुक्त हदय से भक्ति करते हुए दिखाई पड़ते हैं। उन्होंने जिन-जिन तीर्थों की यात्राएँ की, वहाँ वे सर्वत्र ही स्वतन्त्र रूप से नव-नवीन स्तवन बनाकर भाव-अर्चन किया करते थे। अत: यह शक्य नहीं हो सकता है कि कवि इन महान् तीर्थों की यात्रा करने जाए और स्वतन्त्र स्तवन न बनाए। कवि ने स्तवन-प्रसंग में इन तीर्थों का उल्लेख मात्र किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने ये तीर्थ-स्थान प्रसिद्ध होने से एवं उनकी महनीयता से प्रभावित होकर स्तव रूप में उन्हें नमस्कार मात्र ही किया है। १४. अभाव तथा संघर्ष १४.१ परवशता – यह एक प्राकृतिक नियम है कि मनुष्य यौवन-अवस्था और प्रौढ़ अवस्था में स्वयं के ज्ञान-बल, सत्ता-बल एवं प्रभाव बल के आधार पर स्वाधीन होकर जीवन-यापन करता है, लेकिन वही वृद्ध-अवस्था में संतानों से पराधीन बन जाता है। महोपाध्याय समयसुन्दर भी प्रकृति के इस सिद्धान्त से अप्रभावित नहीं रहे । वादी हर्षनन्दन कवि के यशस्वी विद्वान् शिष्य थे। उस समय खरतरगच्छ के गणनायक जिनराजसूरि थे तथा आचार्य जिनसागरसूरि थे। विक्रम संवत् १६८६ में वादी हर्षनन्दन के कारण उक्त दोनों आचार्यों के प्रगाढ़ मैत्री-सम्बन्ध में मनोमालिन्य आ गया। यद्यपि कवि इस मनोमालिन्य को समाप्त करने में समर्थ थे, लेकिन अपने शिष्य हर्षनन्दन के हठाग्रह के आगे वे विवश हो गये और उन्हें शिष्य की इच्छानुसार चलने को बाधित होना पड़ा। यहीं से खरतरगच्छ में एक नई शाखा 'आचार्य-शाखा' बनी। १. जैनसाहित्य-संशोधक, अंक ३, कविवर समयसुन्दर, पृष्ठ १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012071
Book TitleMahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
Publication Year
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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