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________________ समयसुन्दर की रचनाओं में साहित्यिक तत्त्व ३४१ समयसुन्दर रस-रसिक कवि हैं। उन्होंने काव्यों में रस का परिपाक होना अनिवार्य माना है। वे स्वयं अपने काव्यों में रसानुभूति कराने का प्रयत्न करते थे, ताकि पाठक या श्रोता उद्दीप्त भावों की प्रबलता से सहृदयता की अनुभूति कर सके। यों तो समयसुन्दर की रचनाओं का प्रत्येक वाक्य रसयुक्त है, किन्तु कतिपय वाक्यों का विन्यास इस प्रकार से हुआ है कि वे वाक्यं रसात्मकं काव्यं' की पुष्टि करते हुए प्रतीत होते हैं। यद्यपि कवि समयसुन्दर यह मानते हैं कि रचना छोटी, सारगर्भित और रसपूर्ण होनी चाहिए, तथापि उन्होंने वृहद् रचनाएँ भी रची हैं, लेकिन वे पाठकों या श्रोताओं की मनोभावनाओं को ध्यान में रखते हुए कहते हैं कि तुम यह मत कहो कि कवि ने इतने विशद् ग्रन्थ की रचना क्यों की! तुम इसे पढ़ोगे, तो लोकोत्तर स्वाद प्राप्त करोगे और नवनवीन रसों से परिपूर्ण नवनवीन कथाओं का पठन कर रचनाकार को 'शाबासी' दोगे, साधुवाद दोगे। ___ यद्यपि कवि के साहित्य में शृंगारादि नव रसों की सजीव अभिव्यञ्जना हुई है, लेकिन उसमें प्रधानता शान्तरस की ही है। शृंगारादि रसों से शान्त-रस का परस्पर घनिष्ठ संबंध है। कविवर की यह अद्भुत कवित्व-शक्ति ही है कि उन्होंने अपनी रचनाओं में इस प्रकार से रस का परिपाक किया है कि वे पाठकों और श्रोताओं को क्रमशः एक-एक रस का आस्वादन कराते हए अन्त में निमग्न कर देते हैं। इस प्रकार कवि भोग से योग की ओर ले जाने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। यद्यपि यह निर्धान्त सत्य है कि कवि की प्रत्येक रचना का समापन विरक्ति और आत्मशान्ति की गोद में होता है, परन्तु वे अपनी रचनाओं में अन्य सांसारिक रसों की उपेक्षा भी नहीं करते हैं। कवि की साहित्य-साधना का लक्ष्य मनुष्य को लौकिक दुःखों से छुटकारा दिलाकर मोक्ष के आनन्द की प्राप्ति कराना है। अत: कवि समयसुन्दर प्रमुख रूप से शान्त-रस को ही अंगीकृत करते हैं। संक्षेप में कहें, तो समयसुन्दर के साहित्य का शान्तरस अंगीरस है और शेष अंगरस हैं। अब हम विविध रसों के आश्रय से विवेच्य कवि के कृतित्व का मूल्यांकन करने का प्रयत्न करेंगे। १.१ श्रृंगार-रस जिसमें प्रेमी एवं प्रेमिका पारस्परिक प्रेमपूर्ण व्यवहारों की चर्चा होती है, श्रृंगार-रस कहलाता है। श्रृंगार रस का स्थायीभाव रति है। श्रृंगार का शाब्दिक अर्थ ही है- ऐसी स्थिति, जिसमें कामवासना की वृद्धि हो।मानव की कामवासना से सम्बद्ध बातों से होने वाला आनन्द ही इस रस का प्राण है। प्रत्येक सांसारिक व्यक्ति का इस रस के प्रति विशेष आकर्षण होता है। अतएव काव्य के क्षेत्र में भी इसे शीर्षस्थ स्थान प्राप्त हुआ है। १. सीताराम-चौपाई (९.७.५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012071
Book TitleMahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
Publication Year
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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