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________________ समयसुन्दर का जीवन-वृत्त १७ खेतसी, पगारिया और मेड़तवाल गोत्रों की स्थापना की एवं विशद साहित्य का निर्माण किया। आपके उल्लेख्य व्यक्तित्व एवं कृतित्व के सन्दर्भ में मुनि श्री जिनविजयरे का अभिमत है कि जिनेश्वरसूरि के अनुक्रम में शायद तीसरे, परन्तु ख्याति और महत्ता की दृष्टि से सर्वप्रथम ऐसे महान् शिष्य श्री अभयदेवसूरि थे, जिन्होंने जैन ग्रन्थों में सर्वप्रधान जो एकदशांग सूत्र हैं, उनमें से नव अंग (३ से ११) सूत्रों पर सुविशद् संस्कृत टीकाएँ बनाईं। अभयदेव अपनी इन व्याख्याओं के कारण जैन साहित्य-आकाश में नक्षत्र के समान सदा प्रकाशित रहेंगे। श्वेताम्बर-सम्प्रदाय के सभी विद्वानों ने अभयदेवसूरि को बड़ी श्रद्धा और सत्यनिष्ठा के साथ प्रमाणभूत एवं तथ्यवादी आचार्य के रूप में स्वीकार किया है और इनके कथनों को पूर्णतया आप्त-वाक्य की कोटि में समझा है। १०.५ जिनवल्लभसूरि-आपको विक्रम संवत् ११६७ में आचार्य की उपाधि से अलंकृत किया गया और पदोत्सव के चार माह पश्चात् ही आपका निधन हो गया। आपकी पिण्डविशुद्धि-प्रकरण, कर्मग्रन्थ प्रभृति प्राकृत, संस्कृत आदि भाषाओं में निबद्ध पचासों रचनाएँ प्राप्त हैं। पश्चवर्ती विद्वानों ने इन्हें महाकवि कालिदास के सदृश कवि बतलाया है। आपने दस हजार नूतन जैन बनाकर जिनशासन की प्रभावना की। १०.६ जिनदत्तसूरि - आपका जन्म गुजरात-प्रान्तीय धोलका नामक नगर में हुंबड़ जातीय वाछिग की धर्मपत्नी बाहड़देवी की कुक्षि से संवत् ११३२ में हुआ था। वि. सं. ११४१ में प्रव्रज्या ग्रहण कर सोमचन्द्र नाम से अभिषिक्त हुए। सं. ११६९ में यही सोमचद्र आचार्य-पद पर स्थापित होकर जिनदत्तसूरि के नाम से विख्यात हुए। संवत् ११२१ में अजमेर में आपका स्वर्गवास हुआ। __ आपने अपने अद्भुत बुद्धिबल, तपोबल एवं आत्मबल के द्वारा एक लाख, तीस हजार नवीन जैन बनाकर जिनशासन का विपुल विस्तार किया। आपकी गणधर सार्धशतक, धर्मरसायन, चैत्यवन्दनकुलक आदि साहित्यिक कृतियाँ संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश १. (क) अतिचंगनवांगीवृत्तिकार ! खरतरगणनायक! सुगुणधा (धी?) र! यशसा युतं ! जय चिरमभयदेवसूरीश्वर! सुरकृतचरणसेव! - अष्टलक्षार्थी, प्रशस्ति १० (ख) खरतरगच्छ-पट्टावली, पत्र २ २. कथाकोश-प्रकरण, प्रस्तावना, पृष्ठ १२ ३. (क) कृत्वाऽसमीपेऽभयदेवसूरेर्येनोपसम्पद्ग्रहणं प्रमोदात्। पपे रहस्यामृतमागमानां, सूरिस्तत: श्री जिनवल्लभोऽभूत्। - अष्टलक्षार्थी, प्रशस्ति ११ (ख) खरतरगच्छ-पट्टावली, पत्र २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012071
Book TitleMahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
Publication Year
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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