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________________ २४४ महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना महिमराज के आचार्य पदोत्सव के अवसर पर हुई थी। महिमराज समयसुन्दर के विद्या-गुरु थे और इनका परिचय हम प्रथम अध्याय में दे आए हैं। समयसुन्दर के उल्लेखानुसार सम्राट अकबर के आग्रह से आचार्य जिनचन्द्रसूरि ने महिमराज को वि० सं० १६४९, फाल्गुन कृष्णा १० के दिन आचार्य-पद प्रदान किया था और उनका नाम महिमराज से जिनसिंहसूरि स्थापित किया था। इस पदोत्सव का सारा व्यय-भार मन्त्री श्री कर्मचन्द्र बच्छावत ने वहन किया था। प्रस्तुत ग्रन्थ में कवि का काव्य-कौशल मुखरित हुआ है। इसका रचना-काल अनिर्दिष्ट है। इस ग्रन्थ की प्रति अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर में उपलब्ध है। यह ग्रन्थ सम्प्रति अप्रकाशित है। ६.५.१.३ श्री जिनसागरसूर्यष्टकम् प्रस्तुत रचना के प्रथम तीन पद्यों में केवल नगरों के नामोल्लेख हैं। तृतीय पद्य का अन्तिम पाद अनुपलब्ध है। सम्भवतः उस पाद में पूर्वोक्त नगरों में जिनसागरसूरि द्वारा की गई पद-यात्राओं का उल्लेख रहा हो। शेष पांच पद्यों में जिनसागरसूरि के उत्कृष्ट गुणों का वर्णन करते हुए कवि ने यह भी लिखा है कि खरतरगच्छ में शताधिक आचार्यों के होने पर भी जिनसागरसूरि का स्थान अद्वितीय है। रचना का काल अनिर्दिष्ट है। ६.५.२ भाषा में निबद्ध गुरु-गीत ६.५.२.१ श्री गौतमस्वामी अष्टक इस रचना में भगवान् महावीर के प्रधान शिष्य और प्रथम गणधर गौतम स्वामी की प्रार्थना करते हुए उनके प्रतिभासम्पन्न व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व का संक्षेप में चित्रण किया गया है। रचना का रचना-काल अनुल्लिखित है। रचना ८ कड़ियों में निबद्ध है। ६.५.२.२ श्रीगौतमस्वामी गीतम् प्रस्तुत गीत में रचना-काल का निर्देश कवि ने नहीं किया है। गीत ७ गाथाओं में है। गीत की विषय-वस्तु अधो-अंकित है - तीर्थङ्कर महावीर के अपना निर्वाण-काल ज्ञात कर अपने शिष्य गौतम को देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोध देने के लिए निकटवर्ती गाँव में भेजा। गाँव से लौटते समय गौतम ने जब सुना कि भगवान् का निर्वाण हो गया, तो वे शोकमग्न हो विलाप करने लगे तथा प्रभु को उपालम्भ देने लगे। अन्त में वे आन्तरिक प्रेरणा से प्रेरित हुए। उन्होंने राग की शृङ्खलाओं को तोड़ डाला और वीतरागता अथवा कैवल्य को प्राप्त कर लिया। ६.५.२.३ खरतर-गुरु-पट्टावली प्रस्तुत रचना का काल अनिर्दिष्ट है। रचना ८ कड़ियों में है। इसमें कवि ने अपनी गुरु-परम्परा के आचार्यों का नामोल्लेख करते हुए श्रावकों को उनकी स्तुति करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012071
Book TitleMahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
Publication Year
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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