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________________ समयसुन्दर की रचनाएँ १३३ १०० श्लोकों में निर्मित है। दूसरे में भी वृत्तिकार ने मुनि को निर्दोष भिक्षा ग्रहण करने के विधान की व्याख्या की है। इसमें श्लोकों की संख्या ५० है। षष्ठ अध्ययन 'महाचारकहा-महाचारकथा' नामक है। इसमें आचार के अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, परिग्रह, रात्रिभोजन का त्याग, पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय की यतना, अकल्प्य, गृहिभाजन, पर्यंक निषद्या, स्नान, विभूषावर्जन - इन अठारह स्थानों का समयसुन्दर ने विश्लेषण किया है। यह अध्ययन ६८ श्लोकों में रचित है। सप्तम अध्ययन का नाम 'वक्कसुद्धि - वाक्यशुद्धि' है। प्रस्तुत अध्ययन में असत्य और सत्यासत्य भाषा के प्रयोग का निषेध किया गया है। कवि ने इस अध्ययन की सुन्दर व्याख्या की है। इस अध्ययन में ५७ श्लोक हैं। अष्टम अध्ययन 'आयारपणिही - आचारप्रणिधि' का है। आचारप्रणिधि' का अभिप्राय आचार के प्रणिधान से है। श्रमण को इन्द्रिय तथा मन का अप्रशस्त-प्रयोग नहीं करना चाहिये, प्रशस्त प्रयोग करना चाहिये - यह शिक्षण ही इस अध्ययन की आत्मा है। इसलिए इसका नाम 'आचार-प्रणिधि' रखा गया है। वृत्तिकार ने भी प्रस्तुत अध्ययन की वृत्ति की भूतिका में 'साधु को आचार-पालन के लिए प्रयत्न करना चाहिये' - यही इसका मेरुदण्ड दिग्दर्शित किया है। कवि ने इस अध्ययन के ६३ श्लोकों की सुन्दर व्याख्या करने का प्रयास किया है। नवम अध्ययन को 'विणयसमाहि - विनयसमाधि' शीर्षक दिया गया है। इसमें चार उद्देशक हैं, जिसके श्लोकों की संख्या क्रमशः १७+२३+१५+७ = ६२ है। प्रथम उद्देशक में विनय से होने वाला मानसिक स्वास्थ्य, द्वितीय उद्देशक में अविनीतसुविनीत की आपदा-सम्पदा, तृतीय उद्देशक में पूज्य कौन, पूज्य के लक्षण और उसकी अर्हता का उपदेश और चतुर्थ उद्देशक में विनय-समाधि के स्थानों का वर्णन है – इस अध्ययन पर की गई वृत्ति का यही सारांश है। दशम् अध्ययन का नाम 'स-भिक्खु' अर्थात् 'सभिक्षु या सद् भिक्षु' दिया गया है। सद्भिक्षु का भी प्राकृत रूप सभिक्खु बनता है। वैसे कवि ने भी सभिक्खु को सभिक्षु के रूप में ही स्वीकृत किया गया है, लेकिन उसे सद्भिक्षु या सम्यग्भिक्षु के रूप में भी माना है। यह विवेच्य सूत्र का उपसंहार और मूल्यांकन है। इसमें भिक्षु के लक्षण और उसकी अर्हता का उपदेश समाहित है। पूर्ववर्ती ९ अध्ययनों में कथित आचार का पालन करने हेतु जो भिक्षादि करता है, वही भिक्षु है; पेट-पूर्ति मात्र करने वाला भिक्षु नहीं हो सकता - यही दसवें अध्ययन का प्रतिपाद्य विषय है और उसका प्रतिपादन कुल २१ श्लोकों में हुआ है। १. दशवैकालिक-नियुक्ति, ३०८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012071
Book TitleMahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
Publication Year
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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