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________________ समयसुन्दर की रचनाएँ १०७ और रचना-स्थल मेड़ता नगर है, जैसा कि ग्रंथकार ने स्वयं लिखा है स्वच्छे खरतरगच्छे विजयिनि जिनसिंहसूरिगुरुराजे। वेदमनिदर्शनेन्दु प्रमिते ऽब्दे मेडतानगरे ॥ प्रस्तुत ग्रंथ के विचारों (प्रकरणों) का वर्ण्य-विषय संक्षेप में इस प्रकार हैपहला विचार- इसमें 'नन्दीसूत्रवृत्ति' आदि ग्रन्थों का प्रमाण देते हुए यह बताया गया है कि अवधिज्ञानी अधिक से अधिक अलोक पर्यन्त देख सकता है और कम से कम त्रिसमाहारक सूक्ष्मपनकजीव की अवगाहना को देख सकता है। दूसरा विचार- इसमें स्थानांगसूत्रवृत्ति के अनुसार यह कहा गया है कि व्यवहार पाँच प्रकार के होते हैं- १.आगमव्यवहार, २. श्रुतव्यवहार, ३. आज्ञाव्यवहार, ४. धारणाव्यवहार और ५. जीतव्यवहार । ग्रन्थकार ने उक्त व्यवहार भेद के उपभेदों का भी प्रस्तुत विचार में विस्तृत विवेचन किया है। तीसरा विचार- इसमें यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि सूत्र छः प्रकार के होते हैं- १. उत्सर्ग-सूत्र, २. अपवाद-सूत्र, ३. उत्सर्गापवादसूत्र, ४. अपवादोत्सर्गसूत्र, ५. उत्सर्गोत्सर्गसूत्र एवं ६. अपवादापवादसूत्र । प्रमाण के लिए 'निशीथ-चूर्णि' आदि ग्रन्थों के उद्धरण दिये गये हैं। चौथा विचार- इसमें मुनि के गोचरी हेतु गमनागमन में हुए दोषों की आलोचना करने की विधि का वर्णन किया गया है। इस विधि का उल्लेख 'दशवैकालिकसूत्रवृत्ति' में हुआ पाँचवाँ विचार - इसमें जिन मंदिर से सम्बन्धित चौरासी आशातनाओं का विस्तृत निरूपण किया गया है। प्रमाण के लिए 'प्रवचनसारोद्धारसूत्रवृत्ति' का उल्लेख किया गया छठा विचार- इसमें यह कहा गया है कि साधु के द्वारा पंच अवग्रहयुक्त याचना करने का उल्लेख आचारांगसूत्र' में है। सातवाँ विचार- इसमें श्रमण के गोचरी-क्रिया में होने वाले ४७ दोषों का सविस्तार वर्णन किया गया है। उसके लिए ग्रन्थकार ने 'आचारांग नियुक्ति' का प्रमाण दिया है। आठवाँ विचार- इसमें यह बताया गया है कि वर्तमान में निश्चय की अपेक्षा व्यवहार बलवान है, क्योंकि वर्तमान में साधु को व्यवहारत: वंदन किया जाता है तथा व्यवहार में केवली भी छद्मस्थ को वंदन करता है। नवाँ विचार- इसमें 'आवश्यकसूत्रवृत्ति' आदि के आधार पर यह बताया गया है कि ज्ञानावरण आदि काष्ठ-कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति होने पर भी जीव सम्यक्त्व प्राप्त नहीं कर सकता, क्योंकि वह ग्रन्थियों का भेदन नहीं कर सकता है। दसवाँ विचार- इसमें हरिभद्र कृत 'आवश्यकवृत्ति' के आधार पर यह बताया गया है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012071
Book TitleMahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
Publication Year
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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