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________________ समयसुन्दर की रचनाएँ १०५ (८३) इस प्रकरण में विविध ग्रन्थों का प्रमाण देते हुए श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन और त्वक्- इन पाँच इन्द्रियों के क्रमशः शब्द, रूप, गन्ध, रस, और स्पर्श- ये पाँच विषय बताये हैं। जो इन्द्रिय जितनी दूरी तक अपने विषय का ग्रहण करती है, उसका भी लेखक ने उल्लेख किया है। (८४) प्रस्तुत प्रकरण में तिलकाचार्य कृत 'आवश्यक-वृत्ति' के आधार पर यह सिद्ध किया है कि कुणाल-नगरी के विनाश करने वाले दोनों साधु उस समय १५ दिनों तक हुई मूसलाधार वृष्टि से नहीं मरे, बल्कि उसके तीन वर्ष बाद मरकर दुर्गति को प्राप्त हुए। (८५) इसमें यह कहा गया है कि साधुओं को और पौषध करने वाले श्रावकों को जिन छः पदों का पाठ करना होता है, उसका आधार तरुणप्रभसूरि कृत 'षडावश्यक बालावबोध' है। (८६) प्रस्तुत अधिकार में यह बताया गया है कि यद्यपि कटिसूत्र (कटि-दवरक) साधुओं के लिए विहित १४ उपकरणों में नहीं आता है, तथापि परम्परा से इसका बन्धन प्रचलित है। इसी के साथ यह भी कहा गया है कि खरतरगच्छ के श्रमणलोग दवरक का उपयोग इसलिए नहीं करते हैं, क्योंकि आर्यसुहस्तिसूरि की परम्परा में यह प्रथा नहीं थी। (८७) इस प्रकरण में 'झाणंतरिया वट्टमाणस्स केवलवरणाणदंसणे समुपने'– इस पद्य के अर्थ को स्पष्ट करते हुए शुक्ल-ध्यान के चार भेदों का वर्णन किया गया है। (८८) इसमें वनस्पतिकाय के अठारह भेदों का नामोल्लेख करते हुए यह बताया गया है कि ये भेद शैवशास्त्र में प्राप्त होते हैं, जैन में नहीं। (८९) प्रस्तुत प्रकरण में नाभिकुलकर की पत्नी मरुदेवी के शरीर के परिमाण में अपने पति के परिमाण से २५ धनुष कम होने का कारण स्त्री के शरीर का संकुचित होना बताया गया है। (९०) इस प्रकरण में 'न दुक्करं वारणपासमोयणं गयस्स मत्तस्स वणम्मि रायं'- इस पद्य का यह शुद्ध पाठ - 'न दुक्करं बानरं.....रायं' को प्रस्तुत करते हुए पुनरुक्ति-दोष का निराकरण किया गया है। (९१) प्रस्तुत प्रकरण में मिथ्यात्व को गुणस्थान क्यों कहा जाता है, इस समस्या पर विचार किया गया है तथा यह बताया है कि मिथ्यात्व-दशा में भी जीव में अक्षर का अनन्तवाँ भाग- इतना ज्ञान अवश्य रहता है। अतः वह जड़ से श्रेष्ठ होता है और इसीलिए उसे गुणस्थान कहा गया है। (९२) प्रस्तुत अधिकार में श्री आचारांगसूत्र' के आधार पर यह कहा गया है कि भगवान् महावीर दीक्षानन्तर छद्मस्थावस्था में दो बार बोले थे। (९३) इस अधिकार में यह बताया गया है कि गीतार्थ मुनि अपवाद में अशुद्ध, सचित्त और आधाकर्मादि दोष से युक्त आहार ग्रहण कर सकते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012071
Book TitleMahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
Publication Year
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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