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________________ लिए पूर्ण त्यागका पच्चक्खाणका नियम लीया । इसी प्रकार महाराजजीने कृपा करके मुझे श्रावक बनाया । धीरे धीरे कई नियमोको धारण किए। बारह व्रतमें सबका परिमाण किया । आखरी नियम दीक्षाका था उसमें मै पीछे हट गया। एक समय बात चली की जब तक दीक्षा नही लूंगा तबतक गुड़ नही खाउंगा । सब नियम मेरे संवत २००३ से आज तक गुरुकृपासे पालन हो रहे है। उनके उपकार के बदलेमें कुछ नहीं दिया । नाकोडाजीसे वापस आकरमें रायपुर आ गया, उसके बाद में कपूत शिष्य बन गया। तीस वर्ष तक वापस महाराजजीके दर्शनका अवसर नहीं मिला।। कपूत शिष्यको तिस वर्ष बादभी पहचाना : रातको अर्धनिद्रामें ख्याल आया कि अरेमनमोहन तु कैसा कपूतचेला है कि इतने उपकारी गुरु का दर्शन करनेका याद नहीं किया। दूसरे दिन ही सुबह पिताजीसे आज़ा लेकर टिकट बनाने को तत्पर हुआ। म.सा. उस समय पालिताणामें पन्नारुपा धर्मशालामें विराजमान थे। मैने दो टिकट अहमदाबाद के बनवाए और तीसरे ही दिन ट्रेनसे उधर पहुंचा। वहां से पालिताणा गया। वहां पता चला कि गुरुदेव जूनागढकी ओर विहार किये हैं। फीर हम जूनागढ़ गये। वहां से पता चला कि वे सोनगढकी ओर विहार कर दीये। गिरनारजीकी यात्रा करनेके बाद सोनगढ़ आए। वहां से पता चला कि २ दिन विहार किये को हुए हैं। यहाँ अमुक गांवमें दर्शन होगा, वहाँ गये। साहेबजी किसीके घर ठहरे थे वहां गये। पर चढ़ने पर सामने ही आचार्यदेवेश विराजमान थे। में जाकर हाथ जोडकर सामने खड़ा रहा। पूज्यश्रीने दो दफा मेरे ओर देखा और बोले मनमोहन है। क्या? मैने जवाब दिया धन्य हे। तीस वर्षके बादभी कपूत चेलेको पहेचान लिया ! प्रथम प्रश्न- वंदन के बाद सबसे प्रथम प्रश्न किया, "तैयार होकर आये हो क्या ?'' मेरा सिर नीचे झुक गया, दुसरा प्रश्न- "कब तैयार होंगे?" सिर झुका ही रहा, गुरुजीने बैठने को कहा, हम बैठ गये । नियमोंके बारेमें पूछा मैने सरलता से कहा कि आपकी कृपासे कोई । तकलीफ नही । असार संसारके बारेमें समझाया। फिरतो हर साल गुरुजी का दर्शन करता रहा। एसे गुरु को पाकर मेरा जीवन कुछ सुधरा । गुरुजीकी घोरअभिग्रही सविर्धसंयमजीवनकी अद्भुत बातें याद आती हैं, तो रोम रोम हर्षित हो जाता है। मैं वासणामें दर्शन करने गया था वहां बहोत देर तक धर्म चर्चा हुइ। मैने कहा कि गुरुमहाराज मै जानबुझकर पाप बहुत करता हुँ । ईसका क्या कारण हैं । गुरु महाराजने द्रष्टांत ૧૦૮ सह समजाया कि भूख होने पर भी जैसे कोई जहरवाला खाना नहीं खाता क्योंकि जहरसे मरने का डर हैं, वैसे पापो से डर नहीं लगता । जब डर लगने लगेगा तो पापकर्म छूट जायेंगे। धन्य हैं गुरुमहाराज । उस दिन से पापभीरु बन गया। पूज्यश्रीका आखरी चौमासा पूज्यश्रीका आखरी चौमासा गिरनारजीमें था वहां पर उनकी तबीयत खराब होनेका समाचार फोनसे मिला । दूसरे दिन मैने फोन लगाया, तो बताया कि केन्सर हैं दवाई चालू हैं, ठीक हो जायेंगे । मागसर सुदी १३की बात हैं सुद १४मैं पौषधमें था, सदी १५को १२ बजे करीब फोन आया । पूज्यश्री रातको अपने श्वास पूरे कर लिये और दुसरे दिन ३ बजे गिरनारजीमें दाहक्रिया होगी। मेरा हृदय विहल हो उठा। आखरी मुख देखने को तड़पने लगा। हवाईजहाजसे बम्बई गया । बम्बईसे राजकोट पहोंचे वहांसे सम्बन्धीकी कारसे गिरनारजी ३ बजे पहुंच गये। वहां पता चला कि दाहक्रिया सहसावनमें हो रही हैं। गुरुमहाराजका मुखभी नहीं देखा - ___ मैने डोलीवालेको बुलाया और सहसावन चलनेको कहा। १ घंटेमें पहुंचानेको कहा पर डोलीचालेने कहा कम से कम २-२.३० घंटे लग ही जायेंगे। मेरा दिल टूटकर ट्रकडा हो गया ईतनी दूर से समय पर आने पर भी मुखड़ा नहीं देख सकुंगा । मैने बहोत विलाप किया पर कुछ नहीं बना । पश्चाताप के सिवा कुछ हाथ नही लगा । परम पूज्यका उपकार में कभी नहीं भूल सकता। मेरे आत्महित की बाते कौन कहेगा ? ईस पश्चाताप करते हुए मेरे गुरु जहां पर भी हैं में हृदय से मन-वचन-काया से वंदन करता हूं। मैने गुरुजीसे अहमदाबादसे शिखरजी छरी पालक संघकी विनती कि थी। मेरा पुण्य उदय नही था, लाभ नही मीला । पूज्यजीको कोटि कोटि चंदन ऐसे मेरे आत्माके महान उपकारी गुरु का में ऋणी हुँ। आचार्यश्री के आखरी तक सेवामें तत्पर रहें उन पूज्यश्री हेमवल्लभ विजयजीका अनंत उपकार हैं। हर समय देह और आत्माकी भिन्नताका ज्ञान देते रहे हैं। पूज्यश्रीकी आखिर तक सेवामें तत्पर रहे उनको विधिसहित वंदना। और हर हमेश एसी प्रेरणा देवे ईसी आशा के साथ। इति शुभम् Education International .
SR No.012070
Book TitleVismi Sadini Viral Vibhuti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemvallabhvijay
PublisherSahasavan Kalyanakbhumi Tirthoddhar Samiti Junagadh
Publication Year2009
Total Pages246
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth
File Size47 MB
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