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________________ देवगद की जैन कला में प्राचार्य एवं उपाध्याय तथा उनका योगदान का पुनरूद्धार तथा तीर्थकर (कायोत्सर्ग) मूर्ति का निर्माण और आचार्य माधवदेव की प्रेरणा से तीर्थकर मूर्ति के निर्माण के उदाहरण हमें प्राप्त होते हैं। साथ ही मंदिर संख्या २८ की कायोत्सर्ग तीर्थकर मूर्ति का निर्माण चतुर्विध संघ के लिए किये जाने का उल्लेख अतिमहत्वपूर्ण है। अभिलेखों में आर्यिका इन्दुआ द्वारा मंदिर संख्या १ की तीर्थंकर की कायोत्सर्ग मूर्ति का निर्माण और शालश्री व उदयश्री नामक छात्राओं तथा देव नामक छात्र द्वारा उपाध्याय मूर्ति के निर्माण का उल्लेख देवगढ़ में मूर्ति निर्माण और उनके स्थापना की परम्परा को आचार्यों के निर्देशन में पल्लवित होना प्रमाणित करता है। देवगढ़ में आचार्या को प्रायः उपदेश देने की मुद्रा में प्रदर्शित किया गया है। कभी-कभी आचार्यों के साथ भी पुस्तक दिखायी गयी है जो परम्परा के प्रतिकूल है। देवगढ़ से प्राप्त आचार्यों की मूर्तियों के पार्श्व में साधु-साध्वी और श्रावक-श्राविकाओं को बैठकर शांतिपूर्वक उपदेश का अमृतपान करते दिखाया गया है। इसी प्रकार यहाँ उपाध्यायों की भी मूर्तियां मिलती हैं, जिन्हें अपने पद के अनुरूप ग्रन्थ धारण किये और कभी उपदेशपरक मुद्रा में तो कभी आचार्य से तत्व-चर्चा करते रूपायित किया गया है। इस प्रकार हम इन मूर्तियों (आचार्य एवं उपाध्याय) को चार श्रेणियों में विभक्त कर सकते हैं। प्रथम, जिनमें उपाध्याय स्वाध्याय में रत हैं। द्वितीय, जिनमें दो या दो से अधिक उपाध्यायों को आपस में तत्व-उर्चा करते प्रदर्शित किया गया है। तृतीय, जिनमें उपाध्याय, साधुओं और प्रावकों को धर्मोपदेश देते दिखाया गया है। अंतिम वर्ग में हम उन मूर्तियों को रख सकते हैं जिनमें पाठशाला में सामूहिक शिक्षा को दिखाया गया है, जहाँ बालक, श्रावक-श्राविका सहित साधुओं को भी शिक्षा ग्रहण करते देखा जा सकता है। उपरोक्त आकृतियाँ आचार्य एवं उपाध्याय के स्वाध्याय से लेकर अध्यापन में उनकी सहभागिता की सूचक हैं। उपाध्यायों की सर्वाधिक मूर्तियां मानस्तम्भों के शीर्ष भाग की सर्वतोभद्र मूर्तियों में तथा मंदिर संख्या १. ४ और १२ की चहारदीवारी पर देखी जा सकती हैं।" ___ मंदिर संख्या १ (११वीं शती ई.) की एक विशिष्ट मूर्ति में पुस्तकधारी आचार्य की एक बड़ी आकृति को पार्श्ववर्ती उपाध्यायों की आकृतियों और हाथ जोड़े तथा मयूरपीचिकाधारी साधुओं के साथ दिखाया गया है। मध्य की आचार्य मूर्ति जिन मूर्तियों के समान छत्र, प्रभामण्डल आदि से शोभित है। आचार्य की तर्जनी पीठिका की ओर संकेत कर रही है जहाँ स्थापना सहित उपासकों की गतिविधियों को दिखाया गया है। आचार्य का दाहिना हाथ खंडित है। पार्श्ववर्ती पुस्तकधारी उपाध्याय आकृतियाँ व्याख्यान मुद्रा में हैं। ___ आचार्य की एक विरल प्रतिमा मंदिर संख्या १ की पूर्वी मित्ति (११वीं शती ई.) पर है। ध्यान मुद्रा में विराजमान आचार्य के समीप ही छत्रधारिणी श्राविका की आकृति भी द्रष्टव्य है। यद्यपि आचार्य के दोनों हाथ खंडित हैं, फिर भी उनके दाहिने हाथ में ग्रन्थ स्पष्ट है। शीर्ष भाग में आकाशगामी विद्याधरों एवं जिनों की आकृतियाँ बनी हैं। पीठिका पर पुस्तकधारी उपाध्यायों की दो आकृतियाँ बनी हैं। उपाध्याय का दूसरा हाथ व्याख्यान मुद्रा में है। आकार में अपेक्षाकृत छोटी दोनों उपाध्यायों की आकृतियों को मध्य की आचार्य की बड़ी आकृति की ओर कुछ इस भाव से मुड़कर देखने की मुद्रा में दिखाया गया है, मानो तत्वज्ञान की उनकी कोई जिज्ञासा अभी शेष है। इन आकृतियों के समीप जलपात्र है और पीठिका के नीचे स्थापना (पुस्तक-चौकी) भी द्रष्टव्य है। मंदिर संख्या ४ के अंदर की उत्तरी भित्ति के एक विशिष्ट शिलाफलक (११वीं शती ई.) पर पाठशाला का सुन्दर दृश्यांकन है। शिलाफलक पर उत्कीर्ण दो पंक्तियों में से नीचे वाली पंक्ति में (बांयें से दांये) चार कमण्डलु उत्कीर्ण हैं, ऊपर की पंक्ति में अध्ययनरत साधु आकृतियाँ हैं। नीचे वाली पंक्ति में आगे एक अर्द्धस्तम्भ के अन्तर से हस्तबन्ध मुद्रा में चार आर्यिकाओं एवं श्राविकाओं का रूपायन हुआ है। आर्यिकाओं के बगल में उनकी मयूरपीचिका दबी है, जबकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012067
Book TitleSumati Jnana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivkant Dwivedi, Navneet Jain
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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