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________________ जैन आगम में पर्यावरण और आचार 363 का प्रयोग है। प्राचीन समय में यह शब्द प्रचलित नहीं था, परन्तु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, जीवदया, संयम, त्याग, तप, दान आदि की भावना पर्यावरण ही है। हमारे आगमों में सदैव विशुद्ध बने रहने की बात कही है। विशुद्धता ही पर्यावरण है। पर्यावरण शब्द परि + आवरण, इन दो शब्दों के योग से बना है। 'परि' का अर्थ चारों ओर, सभी ओर, इधरउधर, पूर्ण, अत्यंत आदि है।' 'परि का एक अर्थ ओर भी है, इसको छोड़कर, इसके बिना या सिवाय । आवरण का अर्थ घेरा, बाधा, दीवार, पर्दा, छिपाना, ढ़कना आदि है। अतः सरल रूप में यही कह सकते हैं कि जो चारों ओर से रक्षा करता है वहीं पर्यावरण है। जैन आगम ग्रन्थों में आवरण का अर्थ है आच्छादन करने वाला, ढ़कने वाला, तिरोहित करने वाला । यहाँ आवरण शब्द की व्याख्या करते हुए लिखा है, जो आवृत करता है या जिसके द्वारा आवृत किया जाता है, उसे आवरण कहते हैं। इसी तरह 'परि' का अर्थ सर्वतोभाव, समन्तात्, सामीप्य, समीपता आदि है।' परि + आवरण इन दोनों के योग से पर्यावरण बना। आगमों की दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि जो सभी ओर से सर्वतोभद्र रूप में प्रकृति के वातावरण को स्थायित्व प्रदान करता है, वह पर्यावरण है। विभिन्न प्रकार से पर्यावरण की अभिव्यक्ति की जाती है, परन्तु पर्यावरण का प्राणियों के जीवन से गहरा संबंध है। इसके बिना वह अपना अस्तित्व बनाने में समर्थ नहीं हो सकता, परिस्थितियों से नहीं लड़ सकता और न अपनी ही विशेष क्रियाओं को अभिव्यक्त कर सकता । अतः पर्यावरण एक ऐसी चादर है जिसमें प्रकृति का संरक्षण मानसिक संतुलन और जीव संरक्षण का भाव निहित है। प्रायः सभी दार्शनिकों ने वनस्पति को चेतन माना है। जैन चिन्तकों ने वनस्पति से पूर्व प्रथ्वी, जल आदि को भी चेतन, सजीव, प्राणवान आदि कहा है। मानव शरीर के साथ इन सभी की तुलना की गई है जो आज इस वैज्ञानिक युग में आश्चर्यजनक है। परन्तु इतना अवश्य है कि मानव समान ही चेतनायुक्त ये सभी प्रकृति के साधन है, आज जीव विज्ञान ने इस संबंध में जो विश्लेषण किया है वह प्रकृति का वास्तविक पर्यावरण है। यह वैज्ञानिक सत्य है कि विकास के युग में जीवन और जगत को पोषण देने वाला पर्यावरण अभीष्ट है। प्रज्ञापनाकार ने प्रत्येक जीव की वस्तुस्थिति को प्रस्तुत करते हुए यह व्यक्त किया है कि जो जीते हैं प्राणों को धारण करते हैं, वे जीव हैं। जैन धर्म के सिद्धान्तों के अनुसार आचरण ही तो प्रदूषण से बचने का एक मार्ग है, अहिंसा युद्ध रोकने का उपाय है, ब्रह्मचर्य, इन्द्रिय संयम, अनासक्त प्रवृति 'एड्स से बचने का उपाय है । अपरिग्रह सिद्धान्त अपनाने से आज की शोषणता और धनान्शा सत्ता के प्रलोभन से छुटकारा मिल सकता है। पर्यावरण संस्कृति का समग्र रूप है जिसमें प्राणिमात्र का निवास, आवास, स्थान एवं अवकाश विद्यमान है। इससे न केवल प्रथ्वी, जल अग्नि, वायु और वनस्पति का स्थान सुरक्षित है अपितु जितने भी जगत में प्राणवान जीव हैं उनका जीवन, सहज गुण आदि सुरक्षित हैं। प्रकृति का सहज गुण ही पर्यावरण है। मनुष्य का स्वधर्म, प्रथ्वी के खनिज तत्व, जल के ओबिन्दु वायु को वेग, अग्नि की तपन और वनस्पति की प्रौद्योगिकी का फैलाव पर्यावरण का संतुलित रूप है । समग्र दृष्टि से देखा जाये तो विश्व की वस्तुओं का विकास पर्यावरण पर ही निहित है । दूसरी ओर जगत के प्राणियों को बचाने का महाप्रयास हजारों वर्षों से किया जा रहा है, अब भी हो रहा है और आगे भी होगा। यह विचार आगमों का है जिसमें कहा गया है कि श्रमण जीवन की साधना और उसका परिवेश तथा वातावरण सभी तरह को पर्यावरण को सुरक्षित करने में सहकारी है। श्रमणों के कल्प में ज्ञान, शील और तप है। वे सूक्ष्म से सूक्ष्म जीवों का बचाने में सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। यह एक कथन मात्र है किन्तु उनकी क्रियाएं ही समस्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012067
Book TitleSumati Jnana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivkant Dwivedi, Navneet Jain
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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