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________________ जैन संस्कृति की अक्षुण्णता का आधार - सामंजस्य 361 पात्रों को जिनदेव का उपासक कहता है।" इस तरह वह अपनी श्रेष्ठता को स्थापित करने का प्रयास करता है। कुछ हिन्दू ऋषि-मुनि सुमाज में अपेक्षाकृत अधिक आदरणीय थे। जैनाचार्यों ने न केवल इनकी महत्ता को स्वीकार किया वरन् अपने ग्रन्थों में इन्हें महापुरिषा ( महापुरूष), महारिसी एवं तवोघड़ा ( तप रूपी धन से सम्पन्न ) कहकर सिद्धी प्राप्त करने वाला बताया। सूत्रकृतांग के प्रथम स्कंध में इसका वर्णन है। जैन परम्परा में वैदिक ऋषियों के आत्मसातीकरण विषय पर विस्तृत विवरण हमें अनेक ग्रन्थों में मिलते हैं। जैन परम्परा के विशिष्ट ग्रन्थ ऋषिभासित में ४६ महत्वपूर्ण ऋषि-मुनियों में जैन के साथ-साथ वैदिक, बौद्ध, आजीवक आदि परम्परा के ऋषियों को भी स्थान दिया गया है।" कुछ उदाहरणों में पूरा कथानक वैदिक परम्परा से जैन परम्परा में स्वीकार्य कर लिया गया है, जैसेमहाभारत के शान्तिपर्व में पिता-पुत्र संवाद को उत्तराध्ययन सूत्र में स्वीकार्य कर लिया गया है।" मंदिर एवं मूर्तिकला का अवलोकन करने से यह पूर्णतः स्पष्ट हो जाता है कि जैनाचार्यों के निर्देशन में उनका निर्माण समसामायिक शैली के अनुसार ही किया गया। उनमें क्षेत्रगत विशिष्टताएं समाहित की गयी । हिन्दू परम्परा में राम टंका के प्रचलन की प्रवृत्ति बहुलता से मिलती है। इसी परम्परा का पालन करते हुए जैन अनुयायियों ने भी जैन टंका का प्रचलन किया। इसी प्रकार की एक टंका हमें रीवा से प्राप्त हुई है जिसमें एक ओर महावीर तथा दूसरी ओर पार्श्वनाथ का चित्रण है । २ उपरोक्त विवरण के अनुसार हम यह स्पष्ट रूप से कह सकते है कि जैन संस्कृति में हिन्दू संस्कृति के साथ सामंजस्य बनाया। कुछ हिन्दू रूढ़िवादियों ने बौद्ध अनुयायियों को 'बुद्ध' तथा जैन अनुयायियों को 'नंगा' एवं 'लुच्चा' जैसे अपमानजनक टिप्पणियों से दूषित करने का भी प्रयास किया । परन्तु जैन संस्कृति ने उसका कभी प्रतिवाद नहीं • किया। बल्कि हिन्दू संस्कृति के साथ सामंजस्य बनाया। यही कारण है कि जैन संस्कृति इतनी लम्बी अवधि से हिन्दू समाज में अपनी अक्षुण्णता को स्थापित किये हुए है। संदर्भ ग्रन्थ १. जैन, सागरमल, खजुराहों की कला और जैनाचायों की समन्वयात्मक एवं सहिष्णु दृष्टि, खजुराहों इन पर्सपेक्टिव, भोपाल, पृ. २६१/ २. हरिवंश पुराण, २६. १२-५/ ३. आदिपुराण ६. १८१ वर्मा, रत्नेश, खजुराहो के जैन मंदिरों की मूर्तिकला, वाराणसी, पृ. ५६-६२/ ४. गौतम धर्मसूत्र में ४० संस्कारों की सूची दी गई है। विस्तृत विवरण के लिए देखें, पाण्डेय, राजबली, हिन्दू संस्कार, वाराणसी, १६७८ पृ. २२-२३/ ५. आदिपुराण, ३८/३१०-३११/ ६. विजय कुमार, जैन पुराणों में वर्णित जैन संस्कारों का जैनेत्तर संस्कारों से तुलनात्मक अध्ययन, श्रमण, वर्ष ५४, अंक १-३, जनवरी-मार्च २००३, पृ. ११-२६ / ७. जैन, श्वेता, पद्मपुराण में राम का कथानक एवं उसका सांस्कृतिक पक्ष, श्रमण, वर्ष ५५, अंक १ जनवरी-मार्च २००६, पृ. ४५ / ८ सूत्रकृतांग, १/०३/०४/०१, श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, राजस्थान, १६८२ । ६. विस्तृत विवरण के लिए देखें, सिंह, अरूण प्रताप, वैदिक ऋषियों का जैन परम्परा में आत्मसातीकरण, श्रमण, वर्ष ५७, अंक १, जनवरी-मार्च २००६, पृ. १/ १०. ऋषिभासित, नारद अध्ययन, पृ. 91 ११. महाभारत, शांतिपर्व, ७७/०६-०६ एवं उत्तराध्ययनसूत्र, १४-०६.२१-२३/ १२. सिंह, सी. डी. एवं तिवारी, राजेश, एक रोचक जैन टंका, जिन-ज्ञान: प्रोसीडिंग्स ऑफ नेशनल सेमिनार ऑन जैनोलोजी (संपा. एस. के द्विवेदी एवं नवनीत कुमार जैन), मुजफ्फरनगर, २००७, पृ. १३६ - ३६ / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012067
Book TitleSumati Jnana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivkant Dwivedi, Navneet Jain
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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