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________________ जैन संस्कृति की अक्षुण्णता का आधार - सामंजस्य राजेश तिवारी एवं प्रो. सी. डी. सिंह छठी शती ई. पू. में उद्भूत होकर प्रतिष्ठा प्राप्त करने वाले धर्मों में जैन धर्म प्रमुख था। इस काल में जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर का अभ्युदय हुआ। शास्त्रीय मान्यताओं के अनुसार सभी चौबीस तीर्थकर जन्मना क्षत्रिय थे। यदि छठी शती ई. पू. की धार्मिक स्थितियों का आंकलन किया जाये तो ज्ञात होता है कि इस समय ब्राह्मण धर्म अपनी पराकाष्ठा पर था। इस काल में ब्राह्मणेत्तर धर्मों के रूप में जैन एवं बौद्ध दो प्रमुख धर्मों पल्लवन हुआ। यद्यपि जैन धर्म बौद्ध धर्म से कहीं अधिक प्राचीन है। कालान्तर में बौद्ध धर्म अपनी ही भूमि से लुप्त सा हो गया और दक्षिण-पूर्व एशिया में अधिक लोकप्रिय हुआ। परन्तु जैन धर्म का बौद्ध धर्म के विपरीत भारत-भूमि पर अत्याधिक विकास हुआ और उसकी जड़े भारतीय जनमानस में मजबूत होती गयीं। फलतः आज भी जैन धर्म एक प्रतिष्ठित धर्म के रूप में विद्यमान है। यही नहीं उसकी अपनी एक सांस्कृतिक पहचान भी है। जैन धर्म की इस विद्यमानता और स्थायित्व के पीछे कुछ महत्वपूर्ण शक्तियाँ कार्यरत रही हैं जिसमें देशकाल की परिस्थितियों से उसके सामंजस्य स्थापित करने की प्रवृत्ति ही मूल है और यही जैन संस्कृति का मूल आधार है। इससे संबंधित कुछ पक्षों को इस शोध-पत्र के माध्यम से उजागर करने का प्रयास किया गया है। जैन ग्रन्थों के अवलोकन एवं प्रतिमाओं पर विहंगम दृष्टि डालने पर ज्ञात होता है कि जैन आचार्यों ने समसामायिक परिस्थितियों प्रकृति तथा जीव-जन्तुओं आदि सबके साथ सामंजस्य स्थापित किया। इसी कारण चौबीस जिनों में से पंद्रह जिनों के साथ लांछन के रूप में जीव-जन्तुओं का मान्यता दी गई यथा- वृषभ, गज, अश्व, कपि, क्रौंच, गैंडा, महिष, वराह, श्येन पक्षी अथवा रीछ, मृग, छाग, मत्स्य, कूर्म, सर्प एवं सिंह। दो तीर्थंकरों के साथ लांछन के ही रूप में पदम एवं नीलोत्पल को स्थान दिया गया। इसी प्रकार प्रत्येक तीर्थकर के साथ अष्टप्रातिहार्यों के रूप में एक वृक्ष का भी आलेखन हुआ जिसके नीचे उन्होनें ज्ञान प्राप्त किया था। इस वृक्ष का प्रायः जिन प्रतिमाओं में देखा जा सकता है जो प्रत्येक तीर्थंकर का क्रमशः अशोक, शाल, प्रियाल, शाल, प्रियंगु, शिरीष, नाग, शाल, प्रियंगु, तण्डुक, पाटल, जम्बु, अशोक, दधिपर्ण, नन्दी, मिलक, अम्ब्र, अशोक, चम्पक, बकुल ,बेतस, धातकी और शाल हैं। यह मनुष्य का प्रकृति के साथ सामंजस्य को दर्शाता है। जैन तीर्थंकरों के उपरोक्त लांछन हिन्दू धर्म के देवी-देवताओं में भी मान्यता प्राप्त रहे, जैसे- वृषभ शिव के साथ, गज इन्द्र के साथ, अश्व सूर्य के साथ, कपि स्वयं हनुमान, पद्म विष्णु का आयुध, शशि शिव के मस्तक की शोभा, महिष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012067
Book TitleSumati Jnana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivkant Dwivedi, Navneet Jain
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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