SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 379
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 354 Sumati-Jnana रंग में हैं। देलवाड़ा में ही महाराणा मोकल के राज्यकाल का एक अन्य सचित्र ग्रन्थ 'ज्ञानार्णव' वि. सं. १४८५ (१४२७ ई., चित्र-५३. नेमिनाथ मंदिर में लिखा गया दिगम्बर जैन ग्रन्थ (चित्र ६) है। यह लालभाई दलपतभाई ज्ञान भण्डार, अहमदाबाद में सुरक्षित है। इसमें दो चित्रित पृष्ठ हैं, प्रथम पर अढ़ाई द्वीप (चित्र-७) तथा द्वितीय पर ऋषभदेव की हुई दो चश्मी आकृतियां चित्र-८) अंकित हैं। उनके सामने संभवतः उनकी दोनों पुत्रियां ब्राह्मी एवं सुंदरी चित्रित हैं। दोनों ही सुडोल, सुअलंकृत, सवाचश्मी बाहर अंकित नेत्र के तत्कालीन नारी सौन्दर्य का ओजपूर्ण राजस्थानी प्रभाव स्पष्ट करती हैं। पृष्ठ भाग में हिंगलू रंग तथा अन्य स्थलों पर हरे व पीले रंग का बाहुल्य है। बतखों एवं अन्य अभिप्रायों के मौलिक परम्परागत स्थानीय रूपों को अन्तराल छोड़कर श्वेत रिक्त पृष्ठ भाग में काली व सुलझी प्रवाहपूर्ण रेखाएं, आगे चलकर राजस्थानी चित्रों का स्वरूप ग्रहण करती दिखाई देती है। उक्त अभिप्रायों व अंकन पद्धति से यह स्पष्ट होता है कि तत्कालीन जैन आचार्यों एवं स्थानीय चित्रकारों में आदान-प्रदान होता रहा था। इस भूखण्ड का एक ओर सचित्र ग्रन्थ रसिकाष्टक वि. सं. १४६२ है, जो महाराणा कुम्भा के राज्यकाल का एक उल्लेखनीय ग्रन्थ है। रसिकाष्टक नामक ग्रन्थ भीखम द्वारा अंकित किया गया था जो इसकी पुष्पिका से भी स्पष्ट है। इस ग्रन्थ के ६ श्रेष्ठ चित्र उपलब्ध हैं, जिनमें विभिन्न ऋतुओं तथा पशुओं के गतिपूर्ण अंकन हैं जो तत्कालीन कला परम्परा की अच्छी पुष्टि करते हैं। ये अगरचन्द्र नाहटा संग्रह, बीकानेर में सुरक्षित हैं। महाराणा कुम्भा का काल कला का स्वर्ण युग था। स्वयं महाराणा कुम्भा जैन धर्म में आस्था रखते थे। कुम्भा के काल में साहित्य संदों में भी चित्रकला के उल्लेख मिलते हैं, उनमें सोमसौभाग्य काव्य' उल्लेखनीय है। उस समय मेवाड़ के देलवाड़ा नगर में श्रेष्ठियों के मकानों में कई सुंदर चित्र बने हुए थे। देलवाड़ा का संबंध उस काल में माण्डू, ईडर, गुजरात के पाटन, अहमदाबाद, दौलताबाद एवं जौनपुर आदि से होने के समकालीन साहित्यिक संदर्भ उपलब्ध हैं। जौनपुर से एक खरतरगच्छ का विशाल संघ आया था जिन्होनें काव्य सूत्र ग्रन्थ लिखवाने की भी इच्छा व्यक्त की थी। इस संदों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मेवाड़ में देलवाड़ा कला व सांस्कृतिक दृष्टि से बड़ा महत्वपूर्ण केन्द्र था। देलवाड़ा के कुछ आलेखकारों का जौनपुर में ग्रन्थ लेखन हेतु जाना भी संभव है। मांडू के स्वर्ण कल्पसूत्र की प्रशस्ति के अनुसार श्रेष्ठि जसवीर जब मेवाड़ में आये तो महाराणा कुम्भा ने उन्हें तिलक लगाकर सम्मानित किया। इन राज्यों में जैन धर्म व कला की अभूतपूर्व उन्नति हुई। व्यापारिक वर्ग ने तत्कालीन सुल्तानों से कई सुविधाएँ प्राप्त कर ली थीं। माण्डू के कल्पसूत्र की प्रशस्ति में श्रेष्ठि जसवीर का उल्लेख है जिसने मेवाड़ में चित्तौड़, राणकपुर, देलवाड़ा, कुम्भलगढ़, आबू, जीरापल्ली आदि स्थानों की यात्रा की थी और महाराणा कुम्मा ने इन श्रेष्ठियों को सम्मानित भी किया था। मेवाड़ से ऐसे कई साह गुजरात व मालवा की यात्रा हेतु प्रस्थान करते रहते थे। मेवाड़ के देलवाड़ा में दक्षिण भारत के दौलताबाद व पूर्व के जौनपुर से कई श्रेष्ठियों के आने व ग्रन्थ लिखाने के प्रसंगवश वर्णन हैं। अतएव यह स्पष्ट होता है कि मेवाड़ में पंद्रहवीं सदी में सांस्कृतिक उत्थान बड़ी तेजी से हुआ। किन्तु मेवाड़ में इस काल की कृतियां कम मिलती हैं, इसका मुख्य कारण चित्तौड़ में दो बार जौहर का होना है। इन जौहरों में हजारों पुरूष मरे, कई नारियाँ जौहर में कूद पड़ी। आक्रमणकारियों ने मंदिरों, भवनों और ग्रन्थ भण्डारों को आग लगा दी। इनका वर्णन पारसी तवारीखों में स्पष्टतः मिलता है जिससे बड़ी संख्या में ग्रन्थों के नष्ट होने की पुष्टि होती है। संदर्भ ग्रन्य १. हरिभद्रसूरि कृत समराइच्चकहा, हर्मन जेकोबी द्वारा संपादित, कलकत्ता, १६२। २. तओ घेतूण एवं चित्तवठ्ठियं पुववणियं च पाहुड गया माहवीलया मण्डवं मयणलेहा। समराइच्चकहा, पृ. ७२ । ३. ता आलिहउ एत्थ सामिणी समाणवरहंसयविउतं तदं सणुसुयं च रायहंसियंति। तओ मुणियमयणलेहाभिप्पायाए ईसि विहसिउण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012067
Book TitleSumati Jnana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivkant Dwivedi, Navneet Jain
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy