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________________ जैन धर्म दर्शन में सम्यग्ज्ञान: स्वरूप और महत्व 343 रखा है। ___ आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है 'गाणं णरस्स सारो अर्थात् ज्ञान मनुष्य के लिए सारभूत है, क्योंकि ज्ञान ही हेयोपादेय को जानता है। ऐसे सम्यग्ज्ञान का अधिकारी कौन हो सकता है ? इस संबंध में आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं णाणं परिसस्स हवदि लहदि सुपुरिसो वि विणयसंजुत्तो। __णाणेण लहदि लक्खं लक्खंतो मोक्खमग्गस्स।। बोध पाहुड़ २१।। अर्थात् ज्ञान पुरूष अर्थात् आत्मा में होता है और उसे विनयी मनुष्य ही प्राप्त कर पाता है। ऐसे ज्ञान द्वारा यह जीव मोक्षमार्ग का चिन्तन करता हुआ लक्ष्य को प्राप्त करता है। __ वस्तुतः सम्यकग्दर्शनपूर्वक संयम सहित उत्तम ध्यान की साधना जब मोक्षमार्ग के निमित्त की जाती है, तब लक्ष्य की प्राप्ति में सम्यग्ज्ञान के महत्व का परिज्ञान होता है, जैसे धनुष विद्या के अभ्यास से रहित पुरूष बाण के सही निशाने को प्राप्त नहीं कर सकता, उसी प्रकार अज्ञानी पुरूष ज्ञान की आराधना के बिना मोक्षमार्ग के स्वरूप को नहीं पा सकता क्योंकि संयम रहित ज्ञान और ज्ञान रहित संयम अकृतार्थ है, अर्थात् ये मोक्ष को सिद्ध नहीं करते। __वैसे आत्मा में अनन्तगुण हैं, किन्तु इन अनन्त गुणों में एक 'ज्ञान' गुण ही ऐसा है जो 'स्व-पर प्रकाशक है। जैसे दीपक अपने को भी प्रकाशित करता है और अन्य पदार्थों को भी प्रकाशित करता है। उसी प्रकार ज्ञान अपने को भी जानता है और अन्य पदार्थों को भी जानता है। इसी से ज्ञानगुण को सविकल्प (साकार) तथा शेष सब गुणों का निर्विकल्प (निराकार) कहा है। सामान्यतः निर्विकल्प का कथन करना शक्य नहीं है, किन्तु ज्ञान ही एक ऐसा गुण है, जिसके द्वारा निर्विकल्प का कथन भी किया जा सकता है। इस तरह यदि ज्ञान गुण न हो तो वस्तु को जानने का दूसरा कोई उपाय नहीं है। इसीलिए ज्ञान की उपमा प्रकाश से दी जाती है। प्रकाश के अभाव-रूप अन्धकार की जो स्थिति है, वही स्थिति अज्ञान की है। सम्यक् और मिध्या: ज्ञान के दो रुप आत्मा का गुण तो 'ज्ञान' है किन्तु वह सम्यक् भी होता है और मिथ्या भी होता है। संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय को मिथ्याज्ञान कहते हैं। यहाँ यह भी विशेष ध्यातव्य है कि जैन धर्म में जैसी वस्तु है उसे उसी रूप में जानने वाले ज्ञान को भी मिथ्या कहा है क्योंकि मिथ्यादृष्टि यदि वस्तु का स्वरूप जैसा का तैसा समझ और जान रहा है किन्तु वस्तु-स्वरूप की यथार्थ प्रतीति नहीं होने से ऐसे मिथ्यादृष्टि का ज्ञान भी यथार्थ नहीं माना जायेगा। जैन दर्शन (पृ. १८८) पुस्तक में पं. महेन्द्र कुमार जी न्यायाचार्य के शब्दों में – मिथ्यादर्शन वाले का व्यवहार में सत्य प्रमाण ज्ञान भी मिथ्या है और सम्यग्दर्शन वाले का व्यवहार में असत्य अप्रमाणज्ञान भी सम्यक् है। तात्पर्य यह है कि सम्यग्दृष्टि का प्रत्येक ज्ञान मोक्षमार्गोपयोगी होने के कारण सम्यक् है और मिथ्यादृष्टि का प्रत्येक ज्ञान संसार में भटकाने वाला होने से मिथ्या है। इस तरह जो ज्ञान हेय (त्याज्य) को हेय रूप में और उपादेय (ग्रहण योग्य) को उपादेय रूप में जानता है, वही सच्चा ज्ञान है। किन्तु जो हेय को उपादेय और उपादेय को हेय रूप में जानता है वह ज्ञान कमी सच्चा ज्ञान नहीं हो सकता। ऐसे ज्ञान को मिथ्या कहा है। __ज्ञान के होते हुए भी जो अपने आत्मा का हित-अहित का विचार करके हित में नहीं लगता और अहित से नहीं बचता, उसका ज्ञान सम्यक् कैसे कहा जा सकता है ? वस्तुतः मोह के एक भेद मिथ्यात्व का सहभावी ज्ञान भी मिथ्या कहलाता है। जब तक मिथ्या भाव दूर नहीं हो जाता, तब तक ज्ञान आत्मा को उसके हित में नहीं लगा सकता। अतः मिथ्यादृष्टि का यथार्थज्ञान भी अयथार्थ ही कहा जाता है। सम्यग्दर्शन के प्रकट होने के साथ ही पूर्व का मिथ्याज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012067
Book TitleSumati Jnana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivkant Dwivedi, Navneet Jain
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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