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________________ विन्ध्य प्रदेश की सर्वतोभद्रिका प्रतिमाएँ मनोज कुमार सिंह एवं प्रो. चन्द्रदेव सिंह ४६ जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर का आविर्भाव छठीं शताब्दी ईसा पूर्व में हुआ, जिन्होंने जैनधर्म को विस्तारित किया। महावीर के जीवन काल में ही उनकी जीवन्तस्वामी मूर्ति के निर्माण की परम्परा के साहित्यिक साक्ष्य प्राप्त हैं।' प्रारंभिक जिन मूर्तियाँ पटना के लोहानीपुर एवं भोजपुर के चौसा से प्राप्त हुई हैं। कुषाण युग में जैन मूर्तियों के निर्माण का प्रमुख केन्द्र शूरसेन महाजनपद का प्रमुख नगर मथुरा था, जहाँ प्रचुर मात्रा में जैन मूर्तियाँ निर्मित हुईं। धीरे-धीरे जिन मूर्तियों के लाँछन उनके शासन देवता ( यक्ष-यक्षी), जीवन दृश्य, महाविद्याएं, मांगलिक स्वप्न, जैन युगल, चौबीस जनों के माता-पिता, अष्टदिक्पाल, नवग्रह, जैनधर्म एवं संघ की उन्नतिकारिणी शान्तीदेवी, चौसठ योगिनी क्षेत्रपाल आदि की मूर्तियों का निर्माण होने लगा। जैन धर्म और संस्कृति के विकास के साथ-साथ जैनकला का भी विकास हुआ। जैन देवकुल में हिन्दू देवी-देवता सम्मिलित हुए । हिन्दू मान्यता के अनुसार एक से अधिक देवों को एक साथ एक ही पट्ट में निरूपित करने की प्रक्रिया आरंभ हुई और साथ ही देवी-देवताओं की संयुक्त प्रतिमाएं यथा अर्द्धनारीश्वर, हरिहर, हरिहरपितामह की मूर्तियां बनने लगीं, जो दो धर्मों व सम्प्रदायों के बीच सामंजस्य एवं समन्वय को दर्शाती हैं। जैन तीर्थंकरों की स्वतंत्र मूर्तियों के साथ-साथ द्वितीर्थी, त्रितीर्थी, जिन चौबीसी और जिन चौमुखी मूर्तियों के निर्माण की परम्परा आरंभ हुई। यहाँ हम विन्ध्य क्षेत्र से प्राप्त जिन चौमुखी अर्थात् सर्वतोभद्रिका जिन मूर्तियों का वर्णन करेंगे। इस प्रकार की मूर्तियाँ सबसे पहले मथुरा में प्रथम शताब्दी ईसवी में निर्मित हुई । सर्वतोभद्रिका जिन मूर्तियाँ उन्हें कहते हैं जो शुभकारी अथवा मंगलकारी होती हैं। एक ही शिलाखण्ड में चारों दिशाओं में एक-एक प्रतिमा निरूपित की जाती हैं जिससे किसी भी दिशा में दर्शन करने पर उसे देखा जा सके, क्योंकि जैन मान्यता के अनुसार जिन मंगलकारी हैं। इस प्रकार की मूर्तियों में एक ही जिन या अलग-अलग जिनों का अंकन करने की परम्परा रही है, इन्हें जिन चौमुखी या चतुर्मुख भी कहा गया है। इस प्रकार की मूर्तियों के निर्माण के पीछे यह भी धारणा रही होगी कि चारों दिशाओं में जिन ही विद्यमान हैं, वे ही श्रेष्ठ हैं, उन्हीं की उपासना अथवा दर्शन मंगलकारी हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि जिन समवशरण के विकास का सूचक जिन चौमुखी है किन्तु मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी ने इस प्रभाव को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012067
Book TitleSumati Jnana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivkant Dwivedi, Navneet Jain
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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