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________________ 300 Sumati-Jnana नवीन ऐतिहासिक अनुसंधानों तथा वैज्ञानिक व्याख्या पद्धतियों ने अब यह स्पष्ट कर दिया है कि भारतीय संस्कृति की रूपसज्जा में सतत् क्रियाशील ब्राह्यण एवं श्रमण परम्पराएँ आर्य परम्पराएँ हैं। इन्हें वैदिक एवं अवैदिक संज्ञा से अभिहित किया गया है। इस दृष्टि से इक्ष्वाकु परम्परा ऐतिहासिक, प्राचीन, पारम्परिक एवं प्रशस्त रही है। इक्ष्वाकु जन के रूप में इसकी इतिवृत्त एवं सांस्कृतिक अवदान दोनों ही परम्पराओं में विवेचित है। इस परम्परा के तात्त्विक विवेचन से यह तथ्य उद्घाटित होता है कि वैदिक, जैन एवं बौद्ध तीनों ही धर्मों में पृष्ठभूमि, प्रस्थान और परिलब्धि का कार्य किया है। दोनों ही संस्कृतियों की सामाजिक एवं धार्मिक मान्यताएं, आदर्श, मूल्यपरकता, कल्याणप्रवृत्ति तथा जीवन पद्धतियों का योग इक्ष्वाकु परम्परा में दिखाई देता है। दुर्भाग्य से इक्ष्वाकुओं के अभिजन, उनकी वैदिक एवं श्रमण परम्पराओं में वास्तविक स्थिति, भारत के राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एवं दार्शनिक चिन्तन में उनके अवदानों को अन्वेषित नहीं किया गया है जबकि ऐतिहासिक सत्यता यह है कि भारतीय इतिहास, धर्म एवं संस्कृति के रूपायन में इक्ष्वाकुओं तथा उनकी परम्पराओं का महत्तम अवदान है। इसीलिए पिछले एक दशक से विद्वान इस दिशा में सक्रिय हैं। इनमें डेविड फाउली', श्रीकान्त जी. तेलगेरि', रामविलास शर्मा तथा शिवाजी सिंह जैसे विद्वानों के नवीन विश्लेषणों से इक्ष्वाकुजन तथा उनकी परम्पराओं पर प्रकाश पड़ रहा है। जिस प्रकार भारत के प्रामाणिक सर्वांगीण तथ्यपरक इतिहास लेखन में इक्ष्वाकु, भरत, पुरूकुत्सु आदि वैदिक जन तथा उनकी परम्पराओं का योगदान है, उसी प्रकार इक्ष्वाकु एवं भरत की परम्पराएं जैन तथा बौद्ध संस्कृति एवं परम्परा के लिए उपयोगी रही हैं। ___इक्ष्वाकुओं की वैदिक परम्परा अत्यन्त समृद्ध है। यद्यपि वैदिक वाङ्मय में इक्ष्वाकु की चर्चा अत्यल्प है। ऋग्वेद, अथर्ववेद तथा पंचविंश ब्राह्मण में एक-एक स्थान पर प्रसंगतः इक्ष्वाकु उल्लिखित हैं। इन सीमित उल्लेखों के आधार पर भी इतिहासकार यह स्वीकार करते हैं कि वैदिक काल में इक्ष्वाकु जन एवं उनका वंश एक प्रतापी वंश रहा होगा। इसका आधार अन्य संबंधित उल्लेख हैं, जैसे-ऋग्वेद में राजा पुरूकुत्स, राजा व्यरूण त्रसदस्यु जिन्हें इक्ष्वाकुवंशी माना गया है तथा जिन्हें शतपथ ब्राह्यण एवं पंचविंश ब्राह्यण के अनुसार इक्ष्वाकुओं और पुरूओं में एकत्व स्थापित किया जाता है। इसी प्रकार सरयु". गोमती", राम", वशिष्ठ', विश्वामित्र" तथा अयोध्या" आदि वैदिक उल्लेखों से वैदिक कालीन इक्ष्वाकु वंश तथा उनकी परम्पराओं साथ ही रामायण, पुराण एवं संस्कृत नाटकों तथा महाकाव्यों की परम्परा में विवृत इक्ष्वाकु राजा, राजवंश, सत्य, धर्म एवं आर्यत्व की स्थापना से वैदिक परम्परा में इक्ष्वाकुओं को महत्त्वांकित किया जा सकता है। वैदिक इक्ष्वाकुओं की राजवंश परम्परा कोसल (अयोध्या) से संबंधित है। एफ. ई. पार्जिटर", ए. डी. पुसालकर", विशुद्धानन्द पाठक आदि ने अयोध्या के इक्ष्वाकुवंश की सूची दी है। ध्यातव्य है कि वैवस्वत मनु के नौ पुत्रों तथा एक पुत्री इला के मध्य राज्य बटा था। अयोध्या के शासक ज्येष्ठ पुत्र इक्ष्वाकु थे। इस इक्ष्वाकु की वंश परम्परा से ही भारत का इतिहास निरूपित होता है। पारम्परिक इतिहास में पृथु, मान्धाता, पुरूकुत्स, त्रसदस्यु, त्रैय्यारूण, सत्यव्रत, हरिश्चन्द्र, सगर. अंशमान, भगीरथ, नाभाग, अम्बरीष, श्रताय. सदास, दिलीप, रघु, अज, दशरथ, राम, कुश, लव, तक्षक, वृहद्वल तक ७६ शासकों की परम्परा से भारतीय इतिहास तथा संस्कृति गौरवान्वित है। आगे चलकर परवर्ती ऐतिहासिक राजवंशों की परम्परा में छठी शताब्दी ईसा पूर्व के अधिकांश गणतंत्र, राजतंत्र, इक्ष्वाकुवंशीय माने गये। परवर्ती इतिहास की रचना भी इक्ष्वाकु परम्परा की देन है इसीलिए 'इक्ष्वाकुकुल प्रदीप', 'रघुकुलतिलक', 'रघुकुल ग्रामणी' जैसे विरूद साहित्यिक एवं अभिलेखीय परम्परा में व्यवहृत किये गये। महाभारत भीष्मपर्व में भारतप्रशस्ति की जो काव्यतम प्रस्तुति मिलती है वह इक्ष्वाकु परम्परा के यशस्वी राजाओं की है जिसकी पृष्ठभूमि वैदिक है। इससे ज्ञात होता है कि इक्ष्वाकु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012067
Book TitleSumati Jnana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivkant Dwivedi, Navneet Jain
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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