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________________ तपागच्छ का इतिहास भाग-१ शिव प्रसाद निर्ग्रन्थ परम्परा के श्वेताम्बर आम्नाय के गच्छों में तपागच्छ जैसा कि ऊपर हम देख चुके हैं, आचार्य जगच्चन्द्रसरि का स्थान आज तो सर्वोपरि जैसा है। इस गच्छ की परम्परानुसार इस गच्छ के आदिम आचार्य माने जाते हैं। इनके द्वारा रचित न तो बृहद्गच्छीय आचार्य सोमप्रभसूरि और मणिरत्नसूरि के शिष्य जगच्चन्द्रसूरि कोई कृति मिलती है और न ही इस सम्बन्ध में कोई उल्लेख ही हए, जिन्होंने अपने गच्छ में व्याप्त शिथिलाचार के कारण चैत्रगच्छीय प्राप्त होता है। जगच्चन्द्रसूरि के दो प्रमुख शिष्य थे-देवेन्द्रसूरि और आचार्य धनेश्वरसूरि के प्रशिष्य और भुवनचन्द्रसूरि के शिष्य देवभद्रगणि विजयचन्द्रसूरि। गुरु के निधनोपरान्त देवेन्द्रसूरि उनके पट्टधर बने। के पास उपसम्पदा ग्रहण की एवं १२ वर्षों तक निरंतर आयंबिल तप ये अपने समय के प्रमुख विद्वानों में से एक थे। इन्होंने अपनी कृतियों किया जिससे प्रभावित होकर आघाटपुर के शासक जैत्रसिंह ने उन्हें में अपनी गुरु-परम्परा तथा कुछ में अपने साहित्यिक सहयोगी के वि०सं० १२८५/ई०स० १२२९ में 'महातपा' विरुद् प्रदान किया। रूप में अपने कनिष्ठ गुरुभ्राता विजयचन्द्रसूरि का उल्लेख किया आगे चलकर उनकी शिष्य संतति तपागच्छीय कहलायी। है। तपागच्छ में आचार्य देवेन्द्रसूरि, विजयचन्द्रसूरि, धर्म देवेन्द्रसरि ने विशेष रूप से गजरात और मालवा में बिहार घोषसूरि, सोमप्रभसूरि, सोमतिलकसूरि, देवसुन्दरसूरि, मुनिसुन्दरसूरि, किया। वि०सं० १३०२ में उज्जैन में इन्होंने वीरधवल नामक एक हेमविमलसूरि, आनन्दविमलसूरि, हीरविजयसूरि, विजयसेनसूरि, श्रेष्ठी-पुत्र को दीक्षित कर उसका नाम विद्यानन्द रखा। कुछ समय पश्चात् विजयदेवसूरि, उपा० यशोविजय जी तथा वर्तमान युग में आचार्य वीरधवल का लघुभ्राता भी देवेन्द्रसूरि के पास दीक्षित हुआ और उसका विजयानन्दसूरि, आचार्य विजयधर्मसूरि, आचार्य सागरानन्दसूरि, नाम धर्मकीर्ति रखा गया। २२ वर्ष तक मालवा में विहार करने के आचार्य बुद्धिसागरसूरि आदि कई विद्वान् और प्रभावक आचार्य हो चुके पश्चात् आचार्य देवेन्द्रसूरि स्तम्भतीर्थ (खंभात) पधारे। उनके कनिष्ठ हैं तथा आज भी कई प्रभावशाली और साहित्यरसिक मुनिजन विद्यमान गुरुभ्राता विजयसिंहसूरि ने इस अवधि में स्तम्भतीर्थ की उसी हैं। इन मुनिजनों ने अपनी उत्कृष्ट रचनाओं, ज्ञानभंडारों की स्थापना, पौषधशाला में निवास किया जहाँ ठहरमा आचार्य जगच्चन्द्रसरि ने तीर्थयात्रा, तीर्थ क्षेत्रों के जीर्णोद्धार एवं जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा आदि निषिद्ध कर दिया था। इस दरम्यान उन्होंने मुनिआचार के कठोर नियमों कार्यों द्वारा पश्चिमी भारत विशेषकर गुजरात, राजस्थान एवं दिल्ली और को भी शिथिल कर दिया। देवेन्द्रसूरि को ये सभी बातें ज्ञात हुई और पंजाब के कुछ क्षेत्रों में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समाज को जीवन्त एवं वे वहाँ न जाकर दूसरी पौषधशाला, जो अपेक्षाकृत कुछ छोटी थी, समुन्नत बनाये रखने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है जो आज भी जारी में ठहरे। इस प्रकार जगच्चन्द्रद्रसूरि के दो शिष्य एक ही नगर में एक ही समय दो अलग-अलग स्थानों पर रहे। बड़ी पौषधशाला में ठहरने अन्य बहुत सारे गच्छों की भाँति तपागच्छ से भी समय-समय के कारण विजयचन्द्रसूरि का शिष्य समुदाय बृहद्पौषालिक तथा पर विभिन्न उपशाखाओं का प्रादुर्भाव हुआ, जिनमें बृहद्पौषालिक देवेन्द्रसूरि का शिष्य परिवार लघुपौषालिक कहलाया। शाखा, कमलकलशशाखा, कुतुबपुराशाखा, लघुपौषालिक अपरनाम गूर्जरदेश में विहार करने के पश्चात् देवेन्द्रसूरि पुन: मालवा सोमशाखा, राजविजयसूरिशाखा अपरनाम रत्नशाखा, सागरशाखा, पधारे। वि०सं० १३२७/ई०स० १२६१ में वहीं उनका देहान्त हो विमलशाखा, विजयशाखा आदि प्रमुख हैं। गया। उन्होंने विद्यानन्दसूरि को अपना पट्टधर घोषित किया था तपागच्छ के इतिहास के अध्ययन में स्त्रोत के रूप में इस किन्तु उनके निधन के मात्र १३ दिन पश्चात् विद्यानन्दसूरि का भी गच्छ के मुनिजनों द्वारा रचित ग्रन्थों की प्रशस्तियाँ, उनकी प्रेरणा से निधन हो गया। इन घटनाओं के ६ माह पश्चात् विद्यानन्द के छोटे या स्वयं उनके द्वारा लिखी गयी पुस्तकों की प्रतिलिपि या दाता भाई धर्मकीर्ति को धर्मघोषसूरि के नाम से देवेन्द्रसूरि का पट्टधर प्रशस्तियाँ तथा बड़ी संख्या में पट्टावलियाँ मिलती हैं। इसी प्रकार इस बनाया गया। गच्छ के मुनिजनों द्वारा प्रतिष्ठापित बहुत बड़ी संख्या में सलेख जिन देवेन्द्रसूरि द्वारा रचित विभिन्न कृतियां मिलती हैं, जिनमें प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं, जो वि०सं० १४०१ से लेकर वर्तमानयुग तक से कुछ इस प्रकार हैं: की हैं। साम्प्रत निबन्ध में इनमें से महत्त्वपूर्ण और आवश्यक साक्ष्यों १. श्राद्धदिनकृत्यवृत्ति का उपयोग करते हुए इस गच्छ के इतिहास पर प्रकाश डालने का प्रयास २. नव्यपंचकर्मग्रन्थ सटीक किया गया है। ३. सिद्धपंचाशिका सटीक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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