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________________ जैन विद्या क आयाम खण्ड-७ तमिल इतिहास लेखन में जैन लेखकों का योगदान डॉ० असीम कुमार मिश्र भारत के सुदूर दक्षिण का ऐतिहासिक साहित्य समृद्ध है। तमिलभाषा का अत्यन्त प्राचीन ग्रंथ है 'तोलकाप्पियम' यह जिसमें जैन लेखकों का भी महत्वपूर्ण योगदान है। दिगम्बर परम्परानुसार एक श्रेष्ठ व्याकरण ग्रंथ है। साथ ही इसमें पंचतंत्र की कई रोचक अन्तिम जैनाचार्य भद्रबाहु ने दक्षिण प्रदेश में सर्वप्रथम प्रवेश किया कथाएँ वर्णित है। विद्वानों का मत है कि इसके रचयिता 'तोलकाप्पियर' था। उत्तर भारत में अकाल के समय जब विपुल साधु संघ का भरण- जैन थे।२ तोलकाप्पियम का रचनाकाल क्या था, इसका निर्णय करना पोषण कठिन हो गया, तब आचार्य भद्रबाहु (मगध नरेश चन्द्रगुप्त कठिन है फिर भी इसका काल प्राय: ई०पू० की दूसरी शती माना मौर्य के गुरु) ने अपने शिष्यों के साथ मगध छोड़कर दक्षिण की जाता है। इससे पूर्व संघकालीन ग्रंथ 'एट्टत्तकै' (प्रधानतया शृंगाररस ओर प्रस्थान किया और श्रवणबेलकुलम या श्रमण बेलगोल नामक और वीररस की कविताओं के आठसंग्रह) का उल्लेख मिलता है। ये स्थान पर पहुंचे। आचार्य भद्रबाह ने वहाँ से अपने शिष्य विशाख को कविताओं के रूप में राजाओं तथा युद्धो के विषयों पर लिखे गये हैं चोल और पाड्य नरेशों के शासन क्षेत्र तमिलनाडु में जैन-धर्म का और पर्याप्त ऐतिहासिक सूचना प्रदान करते हैं। इसके अतिरिक्त प्रचार करने हेतु भेजा था। इन्हीं आचार्य विशाख के सानिध्य में 'पत्तुप्पाट्ट' संघकालीन एक अन्य ग्रन्थ है। चन्द्रगुप्त मौर्य ने समाधिमरण प्राप्त किया था। उक्त तथ्यों की पुष्टि 'शिलप्पधिकारम्' तमिल साहित्य के पंच महाकाव्यों जैन ग्रन्थों एवं शिलालेखों के आधार पर की जाती है। (पेरूपंचकावियम्) में से एक है। सम्भवत: इसकी रचना तृतीय संगम कुछ विद्वानों का ऐसा मत है कि यह उल्लेख ईसा की नवीं के समय में हुई थी। शिलप्पधिकारम् के रचयिता श्री इंलंगो-अगिल शताब्दी से पहले का नहीं है। अत: उपरोक्त उल्लेख में वर्णित काव्य के प्रमुख पात्र चेर- नरेश चेंगट्टवन के छोटे भाई थे। इसके चन्द्रगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय और आचार्य भद्रबाहु-भद्रबाहु तृतीय हो रचयिता एक जैन थे किन्तु यह ग्रंथ अत्यन्त उदार एवं सहिष्णुतापूर्ण सकते हैं। किन्तु इसके विपरीत ऐतिहासिक बौद्ध ग्रन्थ 'महावंश' में दृष्टिकोण का परिचय देता है। इस ग्रंथ में कण्णकी नामक एक सती इस बात का उल्लेख मिलता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में सिंहल की कथा है। इस काव्य की प्रमुख घटनाओं का केन्द्रवर्ती अवलंब नरेश 'पाण्डुकाभय' ने निगंठो की सहायता की थी। इसके अलावा नूपुर होने के कारण इस महाकाव्य का नाम शिलप्पधिकारम् बना। प्रथम-द्वितीय शती के ब्राह्मलिपि में अंकित कुछ जैन शिलालेख अपने कथा की पृष्ठभूमि में यह महाकाव्य चेंगट्टवन को एक महान दक्षिण तमिलनाडु की गुफा में पाये जाते हैं। अत: इस आधार पर वीर की भूमिका प्रदान करता है, साथ ही करिकालन चोल की सैनिक यह कहा जा सकता है कि जैन श्रमणों ने ईसा पू० दूसरी शती के प्रतिभा की प्रशंसा भी करता है। आस-पास तमिलनाडु में आकर, तमिल भाषा द्वारा जैनधर्म का शिलप्पधिकारम् में तमिल देश की सांस्कृतिक एकता का प्रचार-प्रसार शुरू कर दिया था। यद्यपि आज तमिलनाडु में प्राचीन वर्णन है। इसमें तमिल के तीन राज्यों (चोल, पाड्य व चेर) की एक जैन परम्परा लुप्त प्राय हो गयी है फिर भी एक समय ऐसा था, जब सांस्कृतिक इकाई का गठित रूप चित्रित है। नायक कोवलन और तमिल देश के कोने-कोने में जैन धर्म का प्रचार था। जैनधर्म के इस नायिका कण्णकी चोल देश के वासी हैं। वे व्यवसाय के लिए स्वर्णयुग का पता उपलब्ध शिलालेखों और अनेक स्थानों पर प्राप्त पाड्यदेश गये, वहाँ कोवलन पर चोरी का अभियोग लगाकर उसे प्रस्तर-मूर्तियों द्वारा लगता है। मृत्यु दण्ड दिया गया। कण्णकी अपने पति को निरपराध सिद्ध करती जैन परम्पर में कुन्दकुन्दाचार्य का महत्वपूर्ण स्थान है। ये है। इसके बाद वह चेर राज्य के जंगलों में चली जाती है। इस प्रकार ई०पू० या ई०सन् की पहली शती में हुए थे।१ इनके द्वारा रचित इस कथा के सूत्र में चोल, पाड्य और चेर तीनों राज्य एक सूत्र में ग्रन्थों का दिगम्बर परम्परा में विशिष्ट स्थान है। इनके बाद गुणनंदी ग्रंथित हो गये हैं। इसी प्रसंग में सती कण्णकी द्वारा क्रोध में मदरै और समन्तभद्र का नाम लिया जाता है। दूसरी शती में आचार्य नगरी को भस्म करने का उल्लेख है। इस घटना की तिथि का भी समन्तभद्र ने काँची नरेश को तर्क में पराजित किया, फलस्वरूप रचनाकार ने निर्देश किया है। तद्नुसार-आषाढ़मास के कृष्ण पक्ष के काँची नरेश सन्यास ग्रहण कर शिवकोटि आचार्य के नाम से विख्यात शुक्रवार को जब अष्टमी तिथि और कार्तिक नक्षत्र का मिलन होगा, हए। तमिल देश में यही जैनों का आदिकाल था। इसी क्रम में अग्निदेव पाण्ड्य राजधानी मदुरै का विनाश करेंगे और पाड्य नरेश अकलंकदेव, जिनसेन (प्रथम), वीरसेन, जिनसेन (द्वितीय) एवं की भी दुर्गति अवश्यंभावी है। इस तिथि के विषय में स्व०गुणभद्र तमिलनाडु में आये। तत्पश्चात् तमिल के सुविख्यात पंचमहाकाव्यों एल० डी० सामि कण्णु पिल्लै ने बताया कि यह तिथि २३ जुलाई में तृतीय 'जीवकचिन्तामणी' के रचयिता तिरूत्तक्कदेबर, 'चूलामणि' ७५६ ई० था। किन्तु इसके विपरीत सुविख्यात इतिहासवेत्ता (जैन महाकाव्य) के कवि तोलामोलिदेबर और गुणभद्र के शिष्य रामचंद्रदीक्षितर जो कि खगोलशास्त्री भी हैं, ने यह बताया कि मदुरै अर्थबली-उस समय के प्रसिद्ध जैनाचार्य थे। नगरी ई० की दूसरी शती में अनलकवलित हुई। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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