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________________ श्रमण और श्रावक का पारस्परिक सम्बन्ध : आगमों के आलोक में डॉ० सागरमल जैन जैन धर्म मूलत: निवृत्तिमार्गीय सन्यास मूलक श्रमण परम्परा एक महत्वपूर्ण अङ्ग माना। उन्होंने श्रावक वर्ग को मात्र इसलिए का धर्म है। यह भी सत्य है कि वैदिक परम्परा के विपरीत उसमें महत्त्व नहीं दिया कि वह भिक्षुसंघ के पोषण का मूल आधार है। संन्यास को ही साधनात्मक जीवन का चरम आदर्श स्वीकार किया यद्यपि इसमें कहीं वैमत्य नहीं है कि सभी परम्पराओं में भिक्षु- संघ गया है। अत: यह स्वाभाविक है कि उसमें श्रमण जीवन की प्रधानता के सम्पोषण और संरक्षण का दायित्व गृहस्थ वर्ग पर ही माना गया हो। उसका यह प्राचीन आदर्श रहा है कि व्यक्ति को पहले श्रमण है। यही कारण था कि वैदिक-परम्परा में जब चतुर्विध आश्रमधर्म का उपदेश दिया जाना चाहिये। श्रमण धर्म में दीक्षित होने में व्यवस्था मान्य हुई तो उसमें गृहस्थ आश्रम को अन्य सभी आश्रमों असमर्थता व्यक्त करे तो ही उसे श्रावक धर्म का उपदेश देना चाहिए। का आश्रय-स्थल माना गया । महावीर ने भी इस तथ्य को स्वीकार अत: यह तो निर्विवाद सत्य है कि जैन परम्परा में श्रमण धर्म की किया है। उन्होंने श्रावक के बारह व्रतों में एक व्रत अतिथि-संविभाग प्रधानता रही है और उसमें श्रमण को ही समाज के मार्गदर्शन और रखा है। उपासकदशा सूत्र में महावीर सकडाल पुत्र को यह निर्देश नेतृत्व का अधिकार दिया गया है किन्तु इस आधार पर यह निष्कर्ष देते हैं कि आजीवक श्रमणों के लिए भी तुम्हारा घर एक प्रजा के निकाल लेना कि जैनधर्म में गृहस्थ धर्म या श्रावक वर्ग का कोई समान रहा है अत: उनके आहार पानी की उपेक्षा मत करना। इस स्थान ही नहीं है, अनुचित कहा जायेगा। प्रकार महावीर भी श्रमण- श्रमणियों के सम्पोषण के लिए गृहस्थों के तीर्थंकर धर्म-तीर्थ के रूप में जिस चतुर्विध संघ की कर्तव्य को मान्य करते हैं। किन्तु उन्होंने इसलिए महत्त्व दिया है कि स्थापना करते हैं उसमें साधु और साध्वी के साथ श्रावक और धर्म उसे साधना और धर्मतीर्थ की विकास यात्रा में वह भी एक श्राविकाओं को भी समान महत्त्व दिया गया है। श्रावक भी संघरूपी सहगामी यात्री है। इससे आगे बढ़कर गृहस्थों को संघ के नियंत्रण का तीर्थ का एक महत्वपूर्ण स्तम्भ है। श्रावक वर्ग के अभाव में मुनिसंघ अधिकार भी दिया। स्थानांगसूत्र में गृहस्थ को साधु-साध्वियों के का भी अस्तित्व नहीं रह सकता। ज्ञातव्य है कि मुनिवर्ग के अभाव माता-पिता के रूप में उल्लिखित करने के पीछे मूल उद्देश्य उसे में श्रावक-संघ का तो अस्तित्व रह सकता है। किन्तु श्रावक संघ के उसके कर्तव्य और अधिकार दोनों का बोध कराना था। जिस प्रकार अभाव में मुनि संघ नहीं रहता। अत: दोनों स्थापना और विच्छेद माता-पिता बालक के सम्पोषक और संरक्षक होने के साथ-साथ साथ-साथ होता है। जहाँ-बौद्ध परम्परा में गृहस्थ मात्र उपासक रहा, उसके निर्देशक और नियामक भी होते है। उसी प्रकार गृहस्थ वर्ग भी वहाँ जैन परम्परा में वह श्रावक बना। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि साधु-साध्वियों का न केवल सम्पोषक या संरक्षक होता है अपितु बौद्ध-परम्परा में श्रावक (सावक) शब्द भिक्षु का वाचक है। गृहस्थ उनका नियामक भी होता है। इससे यह स्पष्ट है कि जैन परम्परा में के लिए वहाँ उपासक शब्द ही प्रचलित रहा है। उपासक और श्रावक गृहस्थ को श्रमण साधकों के चरित्र का प्रहरी भी मान लिया गया । शब्द के व्युत्पत्तिलम्य अर्थ में एक बहुत बड़ा अन्तर है। उपासक मात्र उसे यह अधिकार प्राप्त था कि यदि कोई साधु-साध्वी श्रमण मर्यादाओं सेवक है उसका कार्य है सेवा करना। जबकि श्रावक धर्म का श्रोता का सम्यक् रूपेण परिपालन नहीं कर रहा हो तो वह उसे श्रमण संघ होता है, जो श्रोता होता है वही ज्ञानी होता है, वहीमार्गदर्शन या से पृथक् कर दे। नेतृत्व का अधिकारी होता है। अत: श्रावक धर्मतीर्थ का एक महत्त्वपूर्ण जैन परम्परा में मुनि दीक्षा से लेकर आचार्य के सर्वोच्च पद घटक होता है। दूसरे बौद्ध-परम्परा में उपासक को बौद्ध-संघ का के चयन तक में गृहस्थ की अनुमति आवश्यक मानी गयी थी। यह सदस्य नहीं माना जाता था। जबकि जैन धर्म में वह चतुर्विध संघ का परम्परा आज तक भी प्रचलित है। यही कारण था कि जैन परम्परा में अंग है। उसके अभाव में संघ नहीं माना जाता था। यद्यपि भगवान् श्रावक वर्ग श्रमण संघ का प्रहरी बना रहा। उसका परिणाम यह हुआ बुद्ध ने संघ को प्रधानता दी किन्तु संघ से उनका तात्पर्य सदैव ही कि बौद्ध भिक्षु संघ में जो शिथिलता आई और उसके कारण भारत भिक्षु-भिक्षुणी का संघ ही रहा। उन्होंने उपासक वर्ग को उसका अंग में उसका अस्तित्व समाप्त हो गया, वह स्थिति जैन धर्म में नहीं नहीं बनाया, परिणाम यह हुआ कि उपासक वर्ग का भिक्षु-संघ पर आई। आज यह दुर्भाग्य है कि श्रावक वर्ग अपने इस दायित्व के प्रति कोई नियंत्रण नही रहा है। फलत: भिक्षु संघ उतरोत्तर शिथिलाचारी सजग नहीं है। संघ व्यवस्था और धर्म प्रभावना की दृष्टि से श्रावक होकर एक दिन अपनी अस्मिता को ही मिटा बैठा। इसके विपरीत वर्ग और श्रमण वर्ग सहयात्री और सहभागी हैं। भगवान महावीर ने श्रावक और श्राविका-वर्ग को अपने धर्म संघ का वस्तुत: न केवल संघ व्यवस्था की दृष्टि से अपित् आध्यात्मिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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