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________________ १४७ जैन परम्परा के विकास में स्त्रियों का योगदान आवाज उत्पन्न होती थी। स्वीकार करें तो भी हम यह पाते हैं कि उनमें श्रावकों की संख्या तप, स्वाध्याय एवं ध्यान में अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत १,५९,००० तथा श्राविकाओं की संख्या ३,१८,००० थी। इसी करने वाली इन साध्वियों ने जैन धर्म की महान परम्परा को पल्लवित प्रकार भिक्षु-भिक्षुणी संघ में भी भिक्षुणियों की संख्या भिक्षुओं की तुलना एवं पुष्पित किया। इन साध्वियों ने जैन धर्म के प्रचार एवं प्रसार में में अधिक है। अन्य तीर्थंकरों के चतुर्विध संघों में भी भिक्षुणियों एवं अमूल्य योगदान दिया । इसका क्रमबद्ध इतिहास तो नहीं लिखा जा श्राविकाओं की संख्या पुरुषों से अधिक है । संख्या की यह अधिकता सकता परन्तु यह विचार अवश्य किया जा सकता है कि जैन धर्म के संघ में उनकी क्रियाशीलता को दर्शाती है एवं तत्परिणामस्वरूप उनके प्रसार में उनका योगदान अमूल्य था । जैन धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु योगदान को रेखांकित करती है । जैन संघ में उल्लिखित यह संख्या भिक्षओं एवं आचार्यों के साथ वे भी उन प्रदेशों में गईं जो अपरिचित कवि की कल्पना-प्रसूत नहीं है अपित् सुस्पष्ट प्रमाणों पर आधारित है। थे एवं जहाँ जाना कष्ट साध्य था। पुरातात्त्विक प्रमाण हमें बहुलता से नहीं प्राप्त होते, परन्तु जो भी प्राप्त जैनधर्म के प्रसार एवं उसकी परम्परा को अक्षुण्ण रखने में हैं उनसे उपर्युक्त तथ्य की पुष्टि होती है। उदाहरणस्वरूप हम मथुरा के भिक्षुणियों के समान श्राविकाओं का भी अप्रतिम योगदान है। श्रावक जैन लेखों का अध्ययन करें । मथुरा के लेख क्षाण सम्राट कनिष्क एवं श्राविकाओं के योगदान के कारण ही इन्हें संघ का विशिष्ट अंग बनाया उसके उत्तराधिकारियों के समय के हैं । कनिष्क एक सुप्रसिद्ध बौद्ध नरेश गया । धर्मरूपी रथ के दो चक्रों की कल्पना की गई जिसमें एक चक्र के रूप में भी मान्य है। निश्चय ही जैन संघ के लिए यह बहुत अनुकूल को भिक्ष-भिक्षणियों से तथा दूसरे चक्र को श्रावक-श्राविकाओं से परिस्थिति नहीं रही होगी। इस स्थिति में भी मथा में जैन मन्दिरों एवं सम्बन्धित किया गया । श्राविकाओं ने ही साधु-साध्वियों को दैनिक चैत्यों के निर्माण में स्त्रियों की बहुसंख्या में सहभागिता हमें आश्चर्य में आवश्यकताओं की चिन्ता से मुक्त किया । जैनधर्म के विकास में यह डाल देती है। यहाँ जैन धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु बहुमूल्य दान करती उनका महती योगदान था। श्राविकाओं के इस योगदान के अभाव में हुई प्रदर्शित हैं। इनमें धनी एवं उच्च वर्ग की स्त्रियों के साथ ही धर्म रथ का चक्र निस्सन्देह सुचारु रूप से गति करने में समर्थ नहीं था। लोहकार२३, रंगरेज, गांधिक'५, स्वर्णकार२६, नर्तक आदि की पत्रियों, साधु-साध्वियों का आध्यात्मिक जीवन श्रावक-श्राविकाओं के इस योगदान पत्नियों एवं पुत्र-वधुओं के दान का भी उल्लेख है। इनमें गणिकाओं२८ का अत्यन्त ऋणी रहेगा।" का भी नामोल्लेख है जो अपने अन्य सम्बन्धियों के साथ एक मन्दिर श्रावक-श्राविकाओं के योगदान की महत्ता को आचार्यों ने भी के लिए आयागपट्ट एवं तालाब के निर्माण हेतु दान देते हुए प्रदर्शित स्वीकार किया। उत्तराध्ययन में गृहस्थों को भिक्षु-भिक्षुणियों का माता- हैं। पिता बताया गया है। जैन ग्रन्थों में भिक्षुओं एवं श्रावक-श्राविकाओं के समाज के प्रत्येक वर्ग के स्त्रियों की यह सहभागिता जैन मध्य सम्बन्धों को विस्तार से निरूपित किया गया है। भिक्षओं को यह परम्परा के विकास में उनके स्वत: योगदान को सूचित करती है। बिना निर्देश दिया गया था कि वे किसी श्रावक के ऊपर भार न बनें । जैसे किसी दबाव एवं राजकीय आकर्षण के स्त्रियों का यह अवदान जैन धर्म भ्रमर प्रत्येक फूलों का रस ग्रहण करता है और उन्हें कोई कष्ट नहीं के प्रसार में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका को स्पष्ट करता है। समाज के पहुँचाता उसी प्रकार भिक्षुओं को यह सुझाव दिया गया था कि वे प्रत्येक उच्च एवं निम्न वर्ग के साथ समान सम्पर्क ने जैनधर्म को अक्षुण्ण बनाये श्रावक परिवार पर पूर्णतया अवलम्बित न रहें ।२१ भिक्षुओं का श्रावक- रखा एवं उसको निरन्तर गति प्रदान की। श्राविकाओं से सम्पर्क जैनधर्म के विकास में मील का पत्थर साबित जैन धर्म परम्परा के विकास में स्त्रियों के योगदान सम्बन्धी ये हआ। भारत से बौद्ध धर्म के समाप्तप्राय एवं जैन धर्म के निरन्तर उदाहरण प्राचीन ग्रन्थों से उद्धृत हैं। कालान्तर में जैनधर्म में भी पुरुष विकसित होने में उपर्युक्त कारक ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। श्रावक- की प्रधानता को स्वीकार कर लिया गया - फलस्वरूप समाज में नारी श्राविकाओं से जैन आचार्यों का सम्पर्क निरन्तर बना रहा और आज भी का स्थान गौण होता चला गया और उनकी भूमिका महत्त्वहीन हो गयी। है। इसके विपरीत बौद्ध धर्म अपने उपासक-उपासिकाओं से शनैः-शनैः २१वीं शताब्दी के आने वाले समय में हमें समाज में नारी की सार्थक कटता हुआ मठों एवं चैत्यों तक सीमित रह गया। मठों एवं चैत्यों के भूमिका की तलाश करनी है। इसमें प्राचीन साहित्य एवं अभिलेख हमारे विध्वंस होने पर समाज में उनको पहचानने वाला भी कोई न रहा। लिए मार्ग दर्शक सिद्ध हो सकते हैं। हमें उनकी प्रतिष्ठा एवं सम्मान जबकि समाज की उर्जा शक्ति अर्थात् श्रावक-श्राविकाओं का प्रोत्साहन के लिए नया क्षेत्र सृजित नहीं करना है, अपितु पहले से ही प्राप्त उनकी जैनधर्म को निरन्तर उत्साहित किये रहा । प्रशंसनीय भूमिका को पुनः प्रतिष्ठित करना है। जैनधर्म के विकास, प्रसार एवं परम्परा को स्थायित्व प्रदान सन्दर्भ करने में ऊपर हमने जिन श्रावक-श्राविकाओं के योगदान की चर्चा की है - उनमें श्राविकाओं का योगदान सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है । यदि जैनधर्म १. सूत्रकृतांग (आगम प्रकाशन समिति, व्यावर, राजस्थान, १९८२), के सभी तीर्थंकरों में हम केवल महावीर की ही ऐतिहासिकता को १/४/१/१०-११; उत्तराध्ययन (वीरायतन प्रकाशन, आगरा Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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