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________________ अनेकान्तवाद और उसकी व्यावहारिकता १३३ आदि तीर्थंकरों के नाम आये हैं, जिससे यह प्रतीत होता है कि अनेकान्त में झूठा है । दोनों के आपसी कलह का मुख्य कारण यही है । दूसरा का प्रर्वतन वैदिक काल के पहले का है। परन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से पक्ष भी यही ठीक समझता है । अत: महावीर ने वैचारिक जगत् के दोषों अनेकान्त के प्रवर्तक के रूप में जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् को दूर करने का प्रयास किया। एक बार गणधर गौतम भगवान् महावीर महावीर का नाम आता है । जैसा कि भगवतीसूत्र से ज्ञात होता है कि के साथ विचारों के सागर में डुबे हुए थे कि एकाएक गौतम की निगाह महावीर ने स्वप्न में एक चित्र-विचित्र पुंस्कोकिल को देखा, जिसके सन्निकटवर्ती वृक्ष के भंवरे पर पड़ी। उन्होंने तत्क्षण महावीर से प्रश्न कारण वे स्व-पर सिद्धान्तों से प्रेरित हुए। उन्होंने अपने मत के साथ किया - भगवन् ! यह जो भँवरा उड़ रहा है, उसके शरीर में कितने रंग अन्य मतों को भी उचित सम्मान दिया । उन्होंने जिस स्कोकिल को हैं ? देखा वह अनेकान्तवाद या सापेक्षवाद का प्रतीक था। उसके विभिन्न भगवान् ने गौतम की जिज्ञासा को शान्त करते हुए कहा - रंग, विभिन्न दष्टियों को इंगित कर रहे थे। कोकिल का रंग यदि एक गौतम ! व्यवहारनय की दृष्टि से भँवरा एक ही रंग का है और उसका होता तो सम्भवतः महावीर एकान्तवाद का प्रतिपादन करते । किन्तु बात रंग काला है, किन्तु निश्चयनय की दृष्टि से शरीर में पाँच वर्ण हैं । ठीक ऐसी नहीं थी, उन्हें तो अनेकान्तवाद को प्रतिष्ठित करना था और उन्होंने इसी प्रकार गौतम गणधर ने गुड़ के सम्बन्ध में भी प्रश्न उपस्थित कियावैसा ही किया । परन्तु आचार्य बलदेव उपाध्याय के अनुसार अनेकान्तवाद भगवन् ! गुड़ में कितने वर्ण, कितने गंध, कितने रस और कितने के उद्भावक तेईसवें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ हैं। स्पर्श महावीर ने कहा - गौतम ! व्यवहारनय की दृष्टि से तो गुड़ अनेकान्तवाद की आवश्यकता मधुर है, किन्तु निश्चयनय की दृष्टि से इसमें पाँच वर्ण, दो गंध और आठ ई० पूर्व छठी शताब्दी भारतीय इतिहास में वैचारिक क्रान्ति स्पर्श हैं । का काल माना जाता है । इसमें आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक आदि सभी अत: निश्चयनय से वस्तु के वास्तविक स्वरूप का परिज्ञान प्रकार के परिवर्तन देखे जाते हैं । खासतौर पर धर्म-दर्शन के क्षेत्र में मानो होता है और व्यवहारनय से बाह्य स्वरूप का । इस तरह वस्तु के अनन्त जैसे परिवर्तन की होड़ सी लग गयी थी, जिसकी जानकारी जैनागमों धर्म होते हैं । इसलिए किसी भी वस्तु के एक धर्म को सर्वथा सत्य मान तथा त्रिपिटकों से होती है। नागमों से ज्ञात होता है कि महावीर के लेना और दूसरे धर्म को सर्वथा मिथ्या कहना दोषयुक्त है। ऐसा कहना समय में उनके मत को छोड़कर ३६३ मतों का प्रचार-प्रसार था । बौद्ध वस्तु-पूर्णता को खंडित करना है । परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले धर्म त्रिपिटकों में भी वर्णन मिलता है कि बुद्ध के समय बौद्धमत के अलावा एक-दूसरे के विरोधी अवश्य हैं, परन्तु सम्पूर्ण वस्तु के विरोधी नहीं हैं। ७२ चिन्तन प्रणालियाँ थीं। किन्तु सभी मत एकान्तवादी थे। हर वस्तु में दोनों समान रूप से आश्रित होते हैं। व्यक्ति अपने विचार के अलावा अन्य व्यक्ति के विचार को गलत दुनियाँ का कोई भी पदार्थ या कोई भी व्यक्ति अपने आप में समझता था। तत्त्व के सम्बन्ध में भी भिन्न-भिन्न मान्यताएँ देखी जा रही भला या बुरा नहीं होता है । बदमाश, गुण्डा या दुराचारी मनुष्य की थीं। कोई तत्त्व को एक मानता था कोई अनेक, कोई नित्य मानता था अन्तरात्मा भी अनन्त-अनन्त गुणों से युक्त होती है, क्योंकि प्रत्येक तो कोई अनित्य, कोई कूटस्थ मानता था तो कोई परिवर्तनशील आत्मा अनन्त-अनन्त गुणों से युक्त है। दुनियाँ में जड़ पदार्थ भी अनन्त समझता था। किसी ने तत्त्व को सामान्य घोषित कर रखा था तो किसी हैं। सत्य भी अनन्त है । असत्य भी अनन्त है। धर्म भी अनन्त है और ने विशेष । इस प्रकार के मत-मतान्तर से दर्शन के क्षेत्र में आपसी विरोध अधर्म भी अनन्त है तथा अंधकार भी अनन्त है । एक छोटा सा जलकण तथा अशान्ति की स्थिति थी और वैचारिक अशान्ति से व्यावहारिक भी अनन्त गुणसम्पन्न है और महासागर भी अनन्त गणसम्पन्न है । जगत् भी प्रभावित था । एकान्तवाद के इस पारस्परिक शत्रुतापूर्ण उपाध्याय अमरमुनि जी ने वस्तु की अनन्तधर्मता को एक लघु कथा के व्यवहार को देखकर महावीर के मन में विचार आया कि क्लेश का माध्यम से बड़े ही सरल एवं सहज ढंग से प्रस्तुत किया है - एक राजा कारण क्या है ? सत्यता का दंभ भरने वाले प्रत्येक दो विरोधी पक्ष अपने नगर के आस-पास पर्यटन कर रहा था। साथ में मन्त्री भी था। आपस में इतने लड़ते क्यों हैं ? यदि दोनों पूर्ण सत्य हैं तो फिर दोनों घूमते-घूमते दोनों उस ओर निकल पड़े जिस ओर शहर का गंदा पानी में विरोध क्यों ? इसका अभिप्राय है दोनों पूर्णरूपेण सत्य नहीं हैं। तब एक खाई में भरा हुआ, सड़ रहा था, कीड़े बिल-बिला रहे थे। उसे प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या दोनों पूणरूपेण मिथ्या हैं ? ऐसा भी देखते ही राजा का मन ग्लानि से भर गया। वह नाक-सिकोड़ने लगा। नहीं कहा जा सकता है क्योंकि ये दोनों जिस सिद्धान्त का प्रतिपादन पास ही खड़े राजा के सद्धि नामक मंत्री ने कहा - करते हैं, उसकी प्रीति होती है। बिना प्रतीति के किसी भी सिद्धान्त "महराज इस जलराशि से घृणा क्यों कर रहे हैं ? यह तो का प्रतिपादन असम्भव है। अत: ये दोनों सिद्धान्त अंशत: सत्य हैं और पदार्थों का स्वभाव है कि वे प्रतिक्षण बदलते रहते हैं । जिनसे आज आप अंशत: असत्य । एक पक्ष जिस अंश में सच्चा है, दूसरा पक्ष उसी अंश घृणा कर रहे हैं, वे ही पदार्थ एक दिन मनोमुग्धकारी भी बन सकते हैं।" Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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