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________________ १२३ आचार्य जिनसेन (द्वितीय) और उनका ‘पार्वाभ्युदय' काव्य प्रस्तुतश्लोक में द्वितीय चरण में मेघदूत' के श्लोक का है। नाम का राजा राज्य करता था। उस राजा के कमठ और मरुभूमि नाम इस प्रकार, कविश्री जिनसेन ने पादवेष्टित, पदार्थवेष्टित और के दो मन्त्री थे, जो द्विजन्मा विश्वभूति तथा उसकी पत्नी अनुदरी के पुत्र पादन्तरितावेष्टित के रूप -वैभिन्नय की अवतारणा द्वारा 'पार्वाभ्युदय' थे , कमठ की पत्नी का नाम वरुणा था और मरुभूति की पत्नी वसुन्धरा काव्य के रचना-शिल्प में चमत्कार-वैचित्य उत्पन्न कर अपनी अद्भूत नाम की थी। एक बार छोटा भाई मरुभूति शत्रुराजा वज्रवीर्य के विजय काव्य प्रौढिताका आह्लादक परिचय दिया है। के लिए अपने स्वामी राजा अरविन्द के साथ युद्ध में गया । इस बीच आचार्य जिनसेन राजा अमोघवर्ष के गुरू थे, यह काव्य के मौका पाकर दुराचारी अग्रज कमठ ने अपनी पत्नी वरुण की सहायता प्रत्येक सर्ग की समाप्ति में, मूल काव्य और उसकी सुबोधिका व्याख्या से भ्रातृपत्नी वसुन्धरा को अंगीकृत कर लिया । राजा अरविन्द जब की पुष्पिका में उल्लिखित है : 'इत्यमोघवर्षपरमेश्वरपरमगुरूश्री जिनसेनाचार्य शत्रुविजय करके वापस आया, तब उसे कमठ की दुर्वृत्ति की सूचना विरचित मेघदूतवेष्टितवेष्टिते पार्वाभ्युदये ...' प्रसिद्ध जैन विद्वान् श्री मिली । राजा ने मरुभूति के अभिप्रायानुसार नगर में प्रवेश करने के पूर्व पन्नालाल बाकलीवाल के अनुसार राष्ट्रकूटवंशीय राजा अमोघवर्ष ७३६ ही अपने भृत्य के द्वारा कमठ के नगर -निर्वासन की आज्ञा घोषित शकाब्द में कर्णाटक और महाराष्ट्र का शासक था । इसने लगातार कराई । क्योंकि, राजा ने दुर्वृन्त कमठ का मुंह देखना भी गवारा नहीं तिरसठ वर्षों तक राज्य किया। इसने अपनी राजधानी मलखेड या किया । कमठ अपने अनुज पर क्रुद्ध होकर जंगल चला और वहाँ उसने मान्यखेट में विद्या एवं सांस्कृतिक चेतना के प्रचुर प्रचार-प्रसार के तापस-वृत्ति स्वीकार कर ली। कारण विपुल यश अर्जित किया था । ऐतिहासिकों का कहना है कि इस अपने अग्रज कमठ को इस निर्वेदात्मक स्थिति से जाने क्यों राजा ने 'कविराजमार्ग' नामक अलंकार-ग्रन्थ कन्नड़ भाषा में लिखा मरुभूति को बड़ा पश्चाताप हुआ । जंगल जाकर उसने अपने अग्रज कमठ था । इसके अतिरिक्त, 'प्रश्नोत्तर रत्नमाला नामक एक लघुकाव्य की को ढूंढ़ निकाला और वह उसके पैरों पर गिरकर क्षमा माँगने लगा। रचना संस्कृत में की थी। यह राजा आचार्य जिनसेन के चरणकमल के क्रोधान्ध कमठ ने पैरों पर गिरे हुए मरुभूति का सिर पत्थर मारकर फोड़ नमस्कार से अपने को बड़ा पवित्र मानता था । डाला, जिससे उसकी वहीं तत्क्षण मृत्यु हो गई। 'पार्वाभ्युदय' के अन्त में सुबोधिका- टीका, जिसकी रचना इस प्रकार, अकालमृत्यु को प्राप्त मरुभूति आगे भी अनेक आचार्य मल्लिनाथ की मेघदूत-टीका के अनुकरण पर हुई है, के कर्ता बार जन्म-मरण के चक्कर में पड़ता रहा । एक बार वह पुनर्भव के क्रम पण्डिताचार्य योगिराज की ओर से 'काव्यावतर उपन्स्त हुआ है, जिससे में काशी जनपद की वाराणसी नगरी में महाराज विश्वसेन और महारानी 'पार्वाभ्युदय' काव्य की रचना की एक मनोरंजक पृष्ठभूमि की सूचना ब्राह्मी देवी के पुत्र-रूप में उत्पन्न हुआ और तपोबल से तीर्थंकर पार्श्वनाथ मिलती है। बनकर पूजित हुआ। अभिनिष्क्रमण के बाद, एक दिन, तपस्या करते एक बार कालिदास नाम का कोई ओजस्वी कविराज अमोघवर्ष समय पार्श्वनाथ को पुनर्भवों के प्रपंच में पड़े हुए शम्बर नाम से प्रसिद्ध की सभा में आया और उसने स्वरचित 'मेघदूत' नामक काव्य को अनेक कमठ ने देख लिया। देखते ही उसका पूर्वजन्म का वैर भाव जग पड़ा राजाओं के बीच, बड़े गर्व से उपस्थित विद्वानों की अवहेलना करते हुए. और उसने मुनीन्द्र पार्श्वनाथ की तपस्या में विविध विध्न उपस्थित किये। सुनाया। तब, आचार्य जिनसेन ने अपने सतीर्थ्य आचार्य विनयसेन के अन्त में मुनीन्द्र के प्रभाव से कमठ को सद्गति प्राप्त हुई । जिज्ञासु जनों आग्रह वश उक्त कवि कालिदास के गर्वशमन के उद्देश्य से सभा के के लिए इस कथा का विस्तार जैन पुराणों में द्रष्टव्य है । मरुभूति का समक्ष उसका परिहास करते हुए कहा कि यह काव्य (मेघदूत) किसी अपने भव से पार्श्वनाथ के भव में प्रोन्नयन या अभ्युदय के कारण इस पुरानी कृति से चोरी करके लिखा गया है, इसीलिए इतना रमणीय बन काव्यकृति का पार्वाभ्युदय नाम सार्थक है। पड़ा है। इस बात पर कालीदास बहुत रूष्ट हुआ और जिनसेन से कहा- इस ‘पार्वाभ्युदय' काव्य में कमठ यक्ष के रूप में कल्पित है 'यदि यही बात है, तो लिख डालो कोई ऐसी ही कृति ।' इसपर जिनसेन और उसकी प्रेयसी भ्रातृपत्नी वसुन्धरा की यक्षिणी के रूप में कल्पना ने कहा - ऐसी काव्यकृति तो मैं लिख चुका हूँ, किन्तु है वह यहाँ से की गई है। राजा अरविन्द कुबेर हैं, जिसने कमठ को एक वर्ष के लिए दूर किसी दूसरे नगर में है। यदि आठ दिनों की अवधि मिले, तो उसे नगर-निर्वासन का दण्ड दिया था। शेष अलकापुरी आदि की कल्पनाएँ यहाँ लाकर सुना सकता हूँ।' 'मेघदूत' का ही अनुसरण-मात्र है । आचार्य जिनसेन को राज्यसभा की ओर से यथाप्रार्थित अवधि आचार्य जिनसेन ने 'मेघदूत की कथा वस्तु को आत्मसात् कर दी गई और इन्होंने इसी बीच तीर्थकर पार्श्वनाथ की कथा के आधार पर उसे 'पार्वाभ्युदय' की कथावस्तु के साथ किस प्रकार प्रासंगिक बनाया 'मेघदूत' की पंक्तियों से आवेष्टित करके 'पाश्र्वाभ्युदय' जैसी महार्थ है, इसके दो-एक उदाहरण द्रष्टव्य हैं : काव्य-रचना कर डाली और उसे सभा के समझ उपस्थित कर कवि तस्यास्तीरे मुहुरुपल वान्नूर्ध्व शोष प्रशुष्यन् कालिदास को परास्त कर दिया। नुद्वाहुस्सन्यरुषमनसः पञ्चतापं तपो य: । ___'पार्वाभ्युदय' का संक्षिप्त कथावतार इस प्रकार है : भरतक्षेत्र कुर्वन्न स्म स्मरति जडधीस्तापसानां मनोज्ञां । के सुरम्य नामक देश में मोदनपुर नाम का एक नगर था । वहाँ अरविन्द 'स्मिग्च्छायातरुम वसतिं रामगिर्याश्रमेषु ।।' (सर्ग १: श्लो०३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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