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________________ जैनाचायों का आयुर्वेद साहित्य निर्माण में योगदान आयु ही जीवन है, आयु का वेद (ज्ञान) ही आयुर्वेद है, अतः आयुर्वेद एक सम्पूर्ण जीवनविज्ञान है आयुर्वेद का मूल प्रयोजन 'स्वस्थस्य स्वास्थ्यरक्षणम् आतुरस्य च विकारप्रशमनम्' है, अतः स्वस्थ और व्याधित दोनों के लिए यह उपादेय है यद्यपि शारीरिक स्वास्थ्य का रक्षण एवं विकारोपशमन आयुर्वेद का इहलौकिक एवं भौतिक उद्देश्य है, तथापि पारलौकिक निःश्रेयस, आत्ममुक्ति और आध्यात्मिकता से अनुप्राणित जीवन की यथार्थता के लिए सतत् प्रयत्न करना भी इसके मूल में निहित है। अतः भौतिकता या भौतिकवाद की परिधि से निकलकर आयुर्वेदशास्त्र आध्यात्मिकता की श्रेणी में परिगणित है। इस शास्त्र में मानवमात्र के प्रति कल्याणकारी दृष्टिकोण होने से इसे तथा इससे सम्बन्धित चिकित्साकार्य को आचार्यों ने 'पुण्यतम' कहा है, यथा, 'चिकित्सितात् पुण्यतमं न किंचित्' भारत में आयुर्वेद की परम्परा अनादिकाल से प्रवाहित है, वैदिक वाङ्मय एवं आयुर्वेद के विभिन्न शास्त्रों में प्राप्त उद्धरणों के अनुसार आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपांग माना गया है, अतः कुछ विद्वान् इसे पंचम वेद के रूप में मानते हैं। अथर्ववेद में आयुर्वेद के पर्याप्त उद्धरण एवं बीज उपलब्ध होने से अथर्ववेद से तो इसका निकटतम सम्बन्ध है ही, अन्य वेदों तथा वैदिक साहित्य में भी पर्याप्त रूप से आयुर्वेद के बीज उपलब्ध होने से सम्पूर्ण वैदिक साहित्य से इस का निकटतम सम्बन्ध है। वैदिक वाङ्मय के अनुसार आयुर्वेद की परम्परा अत्यन्त प्राचीन हैं, इनके अनुसार सर्वप्रथम ब्रह्मा ने सृष्टि के आरम्भ में आयुर्वेद की अभिव्यक्ति की ब्रह्मा से उपदेश के रूप में प्रथमतः दक्ष प्रजापति ने आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त किया और उस ज्ञान को उन्होंने उपदेश के रूप में अश्विनीकुमारों को दिया। अश्विनीकुमारों से देवराज इन्द्र ने आयुर्वेद का उपदेश ग्रहण किया, इन्द्र से आयुर्वेद का उपदेश ग्रहण कर पृथ्वी पर उसका अवतरण करने का श्रेय महर्षि काशीराज दिवोदास, धन्वन्तरि और महर्षि कश्यप का है। तत्पश्चात् पुनर्वसु आत्रेय, महर्षि अग्निवेष, महर्षि सुश्रुत आदि विभिन्न शिष्य-प्रशिष्यों द्वारा अधीत होकर आयुर्वेद इस समग्र भूमंडल पर प्रसारित हुआ । वर्तमान में चरकसंहिता, काश्यपसंहिता, अष्टांगहृदय आदि आयुर्वेद के मुख्य और आधारभूत ग्रंथ माने जाते हैं। इस प्रकार यह आयुर्वेद की एक संक्षिप्त वैदिक परम्परा है । वैदिक साहित्य की भांति जैनधर्म और जैन साहित्य से भी आयुर्वेद का निकटतम सम्बन्ध है जैनधर्म में आयुर्वेद का क्या महत्त्व है और उसकी उपयोगिता कितनी है ? इसका अनुमान इस तथ्य से सहज ही लगाया जा सकता है कि जैन वाड्मय में आयुर्वेद का समावेश Jain Education International आचार्य राजकुमार जैन द्वादशांग के अन्तर्गत किया गया है। यही कारण है कि जैन वाङ्मय में अन्य शास्त्रों या विषयों की भांति आयुर्वेदशास्त्र या वैद्यक विषय की प्रामाणिकता भी प्रतिपादित है। जैनागम में वैद्यक (आयुर्वेद) विषय को भी आगम के अंग के रूप में स्वीकार किये जाने के कारण ही अनेक जैनाचार्यों ने आयुर्वेद के ग्रंथों की रचना की । यह एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि जैनागम में केवल उसी शास्त्र विषय या आगम की प्रामाणिकता प्रतिपादित है जो सर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट है। सर्वज्ञ कथन के अतिरिक्त अन्य किसी विषय या स्वरुचि विरचित ग्रंथ अथवा विषय की प्रामाणिकता न होने से जैन वाड्मय में उसका कोई महत्त्व, उपयोगिता या स्थान नहीं है, क्योंकि सर्वज्ञपरमेष्ठी के मुख से जो दिव्यध्वनि खिरती (निकलती ) है उसे श्रुतज्ञान के धारक गणधर ग्रहण करते हैं । गणधर द्वारा गृहीत वह दिव्यध्वनि जो ज्ञानरूप होती है बारह भागों में विभक्त की गई, जिसे आचारांग आदि के रूप में उन्होंने निरूपित किया, गणधर द्वारा निरूपित व ज्ञानरूप आगम के बारह भेदों को द्वादशांग की संज्ञा दी गई है। इन द्वादशांगों में प्रथम आचारांग है और बारां दृष्टिवाद नाम का अंश है। दृष्टिवाद के पाँच भेद हैं। उन पाँच भेदों में से एक भेद पूर्व या पूर्वगत है। इस ' पूर्व भेद' के भी पुनः चौदह भेद हैं। पूर्व के इन चौदह भेदों में प्राणवाय' नाम का एक भेद है। इसी प्राय नामक अंग में अष्टांग आयुर्वेद का कथन किया गया है जैनाचायों के अनुसार आयुर्वेद का मूल प्राणवाय पूर्व यही है। इसी के अनुसार अथवा इसी के आधार पर परवर्तीीं आचार्यों ने वैद्यकशास्त्र का निर्माण अथवा आयुर्वेद विषय का प्रतिपादन किया है। जैनागम के अन्तर्गत प्रतिपादित प्राणवाद पूर्व का निम्न लक्षण बतलाया गया है कायचिकित्साधष्टांग आयुर्वेदः भूतकर्मजांगुलिप्रक्रमः प्राणापानविभागोऽपि यत्र विस्तरेण वर्णितस्तत्प्राणवायम । - अर्थात् जिस शास्त्र में काय, तद्वत दोष तथा चिकित्सा आदि अष्टांग आयुर्वेद का वर्णन विस्तारपूर्वक किया गया हो, पृथ्वी आदि महाभूतों की क्रिया, विषैले जानवर और उनके विष की चिकित्सा आदि तथा प्राणापान का विभाग जिसमें किया गया हो उसे 'प्राणवाद' पूर्व शास्त्र कहते हैं । द्वादशांग के अन्तर्गत निरूपित प्राणवाद पूर्व नामक अंग मूलतः अर्धमागधी भाषा में निबद्ध था, इस प्राणवाद पूर्व के आधार पर ही अन्यान्य जैनाचार्यों ने विभिन्न वैद्यक ग्रन्थों का प्रणयन किया है। श्री उग्रदित्याचार्य ने भी प्राणवाद पूर्व के आधार पर कल्याणकारक नाम के वैद्यक ग्रन्थ की रचना की है। इस तथ्य का उल्लेख आचार्यश्री ने स्थानस्थान पर किया है, इसके अतिरिक्त ग्रन्थ के अन्त में उन्होंने स्पष्ट रूप से लिखा है For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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