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________________ जैन, बौद्ध और वैदिक साहित्य- एक तुलनात्मक अध्ययन में चक्रवर्ती के १४ रत्न बताये गये हैं। तो दीघनिकाय में चक्रवर्ती के ७ रत्नों का उल्लेख है। उनकी उत्पत्ति और विजयगाथा प्रायः एक सदृश है। स्थानांग ६२ में बुद्ध के तीन प्रकार- ज्ञानबुद्ध, दर्शनबुद्ध और चारित्रयुद्ध बताये हैं तथा स्वयंसंबुद्ध, प्रत्येकबुद्ध और बुद्धबोधित ये तीन प्रकार बताये गये हैं । अंगुरनिकाय में बुद्ध के तथागतबुद्ध और प्रत्येकबुद्ध ये दो प्रकार बताये गये है । ६३ स्थानांग" में स्त्री के स्वभाव का चित्रण करते हुए चतुर्भगी बताई गई है । वैसे ही अंगुत्तरनिकाय" में भार्या की सप्तभंगी बताई गई है (१) वधक के समान (२) चोर के समान (३) अय्य सदृश (४) अकर्म कामा (५) आलसी (६) चण्डी (७) दुरुक्तवादिनी इत्यादि लक्षण युक्त। माता के समान, भगिनी के समान, सखी के समान और दासी के समान स्त्री के ये अन्य प्रकार बताए हैं। ७ स्थानांग ६६ में चार प्रकार के मेघ बताये हैं (१) गर्जना करते है किन्तु बरसते नहीं है, (२) गर्जते नहीं बरसते हैं, (३) गरजते और बरसते हैं, (४) गरजते भी नहीं बरसते भी नहीं। इस उपमा का संकेत किया है तो अंगुत्तरनिकाय में इस प्रत्येक भंग में पुरुष को पटाया गया है । (१) बहुत बोलता है किन्तु करता कुछ नहीं, (२) बोलता नहीं पर करता है, (३) बोलता भी नहीं और करता भी नहीं, (४) बोलता भी है, करता भी है। इसी प्रकार गरजना और बरसना रूप चतुर्भगी अन्य प्रकार से भी घटित की गई ह स्थानांग" में कुंभ के चार प्रकार बताये गये हैं (१) पूर्ण और अपूर्ण, (२) पूर्ण और तुच्छ (३) तुच्छ और पूर्ण, (४) तुच्छ और अतुच्छ । इसी तरह कुछ प्रकारान्तर से अंगुत्तरनिकाय में कुंभ की उपमा । पुरुष चतुभंगी से घटित की है। (१) तुच्छ खाली होने पर भी ढक्कन होता है, (२) भरा होने पर भी ढक्कन नहीं होता, (३) तुच्छ होता है बक्कन भी होता है। (१) जिसकी वेश-भूषा तो ठीक है किन्तु आर्यसत्य का परिज्ञान नहीं है वह प्रथम कुंभ के सदृश है। आर्यसत्य का परिज्ञान होने पर भी बाह्य आकार सुन्दर नहीं हो वह द्वितीय कुंभ के सदृश है। (२) बाह्य आकार भी सुन्दर नहीं और आर्यसत्य का भी परिज्ञान नहीं । बाह्य आकार भी सुन्दर और आर्यसत्य का परिज्ञान भी है। इसी तरह अन्य चतुर्भगों के साथ निकाय के विषयवस्तु की तुलना की सकती है। " इसी प्रकार उत्तराध्ययनसूत्र की अनेक गाथाओं से बौद्ध साहित्य धम्मपद", थेरीगाथा", अंगुत्तरनिकाय ७३ सुत्तनिपात४, जातक५, महावग्ग तथा वैदिक साहित्य श्रीमद्भागवत एवं महाभारत के शांतिपर्व, उद्योगपर्व ९, विष्णुपुराण, श्रीमद्भगवद्गीता' १, श्वेताश्वतर उपनिषद् शांकर भाष्य का भाव और अर्थ साम्य है । उत्तराध्ययन के २५ वें अध्ययन में ब्राह्मणों के लक्षणों का निरूपण किया गया है और प्रत्येक गाथा के अन्त में 'तं वयं बूम Jain Education International १११ महाणं" पद है। उसकी तुलना बौद्ध ग्रन्थ धम्मपद के ब्राह्मण वर्ग ३६ वें तथा सुत्तनिपात के वासेद्वसुत ३५ के २४५ वें अध्याय से की जा सकती है। धम्मपद के ब्राह्मण वर्ग की गाथा के अन्त में 'तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं" पद आया । सुत्तनिपात में भी इस शब्द का प्रयोग हुआ है । इसी प्रकार महाभारत के शानित पर्व अध्याय २४५ में ३६ श्लोक हैं उनमें ७ श्लोकों के अन्तिम चरण में 'तं देवा ब्राह्मण विदुः ' ऐसा पद है। इस प्रकार तीनों परम्परा के मानवीय ग्रन्थों में ब्राह्मण के स्वरूप की मीमांसा में कुछ शब्दों के परिवर्तन के साथ उन्हीं रूपक और उपमाओं के प्रयोग द्वारा विषय को स्पष्ट किया है । " दशवैकालिक की अनेक गाथाओं की तुलना धम्मपद, संयुत्त निकाय८५, सुत्तनिपात ८६, संयुक्त निकाय" सुत्तनिपात कौशिक जातक, विसवन्त जातक ८६. इतिवृत्तक, श्रीमद्भागवत, श्रीमद्भगवतगीता" मनुस्मृति आदि के साथ की जा सकती है। कहीं पर शब्दों में साम्य है तो कहीं पर अर्थ में साम्य है । 2 इसी तरह सूत्रकृतांग की तुलना दीघनिकाय के साथ, उपासक दशांग की तुलना दीघनिकाय के साथ, अन्तकृदशांग की तुलना थेर और धोरीगाथा के साथ राजप्रश्नीय की तुलना पायासीसुत्त के साथ, निशीथ की तुलना विनयपिटक के साथ और छेद सूत्रों की तुलना पातिमुख के साथ की जा सकती है । जैन और बौद्ध दोनों ही परम्पराओं में अनेकों शब्दों का प्रयोग समान रूप से हुआ है । उदाहरण के लिए हम कुछ शब्द साम्य यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं। निगंठ निर्मन्थ, जो अन्तरंग और बहिरंग से मुक्त है। जैन परम्परा में तो श्रमणों के लिए 'निर्ग्रन्थ' शब्द हजारों बार व्यवहृत हुआ है। बौद्ध त्रिपिटक साहित्य में भी जैन श्रमणों के लिए 'निर्मन्थ' शब्द का प्रयोग हुआ है। श्रमण भगवान् महावीर के पुनीत प्रवचन को भी निर्गन्ध प्रवचन कहा है। - For Private & Personal Use Only , भन्ते जैन और बौद्ध दोनों ही परम्पराओं में आदरणीय व्यक्तियों को आमंत्रित करने के लिए 'भन्ते' (भदन्त) शब्द व्यवहृत हुआ है । १४ - ८४ - थेरे दोनों ही परम्पराओं में ज्ञान, वय और दीक्षा पर्याय आदि को लेकर घेरे या स्थविर शब्द का व्यवहार हुआ है ।" बौद्ध परम्परा में यह वर्ष से अधिक वृद्ध भिक्षुओं के लिए घेर या बेरी शब्द का प्रयोग हुआ है। जैन परम्परा में भी एक मर्यादा निश्चित की गई है। जो स्वयं भी ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि में स्थिर रहता है और दूसरों को भी स्थिर करता है, वह स्थविर है स्थविर को भगवान् की उपमा से अलंकृत किया गया है। गीता में 'स्थविर' के स्थान पर 'स्थितप्रज्ञ' का प्रयोग हुआ है। स्थितप्रज्ञ वह विशिष्ट व्यक्ति होता है जिसका आचार निर्मल और विचार पवित्र होता है। 1 आउसो जैन और बौद्ध दोनों परम्पराओं में समान या अपने www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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