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________________ गुणस्थान : मनोदशाओं का आध्यात्मिक विश्लेषण ६५ यह अपक्रान्ति की स्थिति में अनन्तानबंधी कषाय के आविर्भाव से होता सहावस्थानलक्षणविरोधदोष ६ की आशंका यहाँ नहीं करनी चाहिए, है। इसमें आने के बाद जीव नियम से पहले गुणस्थान में पहुँचता है। क्योंकि मित्रामित्रन्याय" से एक काल और एक ही आत्मा में मिश्ररूप रत्नशेखरसूरि ने इस गुणस्थान को 'सास्वादन' भी कहा है - सह (सम्यग्मिथ्यात्वरूप) परिणाम हो सकते हैं। आस्वादनेन वर्तते इति सास्वादनम् । खीर वमन करने वाले को जिस सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव देशसंयम या सकलसंयम को ग्रहण प्रकार खीर का आस्वाद आता रहता है, उसी प्रकार जो एक बार (ऊपर नहीं करता और न आयुकर्म का ही बन्ध करता है । मरण और के गुणस्थान में) सम्यक्त्व का आस्वादन कर चुका है, पर वह उससे मारणान्तिक समुद्घात भी इस गुणस्थान में नहीं होते तथा यहाँ का च्युत हो गया है, उसे भी खीर के आस्वाद के समान सम्यक्त्व का जीव नियम से सम्यक्त्वरूप या मिथ्यात्वरूप परिणामों को प्राप्त करके आस्वाद बना रहता है । इसीलिए यह जीव सास्वादन सम्यग्दृष्टि ही मरण करता है, क्योंकि मिश्र गणस्थानों में कभी मरण नहीं होता।५० कहलाता है। ४.असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान- जिस जीव की दृष्टि शंका- अनन्तानुबंधी यदि सम्यक्त्व का विराधक है तो फिर सम्यक् (समीचीन, यथार्थ) हो वह सम्यग्दृष्टि, जो सम्यग्दृष्टि तो हो, पर उसकी गणना दर्शनमोहनीय के भेदों में की जानी चाहिए। यदि वह संयम का पालन नहीं करता हो, वह असंयत सम्यग्दृष्टि कहलाता चारित्रमोहनीय का भेद है तो फिर उससे सम्यक्त्व का विराधन नहीं हो है। 'जो इन्द्रियों के विषयों से तथा स्थावर५१ और त्रस५२ जीवों की हिंसा सकता और ऐसी दशा में फिर सासन गुणस्थान बनना भी संभव नहीं। से विरक्त नहीं है, किन्तु जिनोक्त प्रवचन का श्रद्धान् करता है, वह दूसरे, अनन्तानुबन्धी से यदि सम्यक्त्व का नाश हो जाता है तो फिर उसे अविरत सम्यग्दृष्टि है५३ । अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क के उदय के (इसे गुणवर्ती जीव को) मिथ्यादृष्टि ही कहना चाहिए, न कि सभ्यग्दृष्टि? कारण यह जीव व्रत-नियम धारण नहीं कर पाता, पर यथार्थ ज्ञान और समाधान - अनन्तानुबंधी में द्विस्वभावता है अर्थात् इसमें समीचीन दृष्टि होने से तत्त्वार्थ का दृढ़ श्रद्धानी होता है । अत: इसके आत्मा के दर्शन और चारित्र इन दोनों के ही घात करने का स्वभाव पाया आत्मिक गुणों का विकास प्रारम्भ हो जाता है और वह शान्ति का जाता है। अत: यह चारित्र की ही भाँति सम्यक्त्व का भी विराधन (घात) अनुभव करता है तथा चारित्रमोह की शक्ति को निर्बल करने के लिए कर सकता है। दूसरे, सासन गुणस्थानवर्ती को मिथ्यादृष्टि न कहकर उद्यत रहता है। सम्यग्दृष्टि इसलिए कहा गया है कि इसमें मिथ्यादृष्टि से कुछ विलक्षणताएँ संयम का आचरण नहीं करने पर भी असंयत सम्यग्दृष्टि जीव पायी जाती हैं -(१) मिथ्यादृष्टि में अतत्त्वश्रद्धान् व्यक्त होता है जब श्रद्धान के सद्भाव के कारण आत्म-अनात्म के विवेक से सम्पन्न और कि सासादन में वह अव्यक्त होता है। (२) सम्यक्त्व से च्युत हो जाने सप्तभयों से मुक्त रहता है, भोग भोगते हुए भी उनमें लिप्त नहीं होता, पर भी खीर-वमन की भाँति सासादन में सम्यक्त्व का आस्वाद बना अपने विचारों पर पूर्ण नियन्त्रण रखता है, दुःखियों पर दया करता है, रहता है । (३) अत: यहाँ सम्यग्दृष्टि व्यपदेश भूतपूर्व प्रज्ञापन नय की निरपराधियों की हिंसा नहीं करता५५ तथा लक्ष्य और बोध शुद्ध रहने से अपेक्षा से है । (४) यहाँ मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा आत्मिक शुद्धि अधिक संयम के पथ पर चलने के लिए उद्यत रहता है५६ । रहती है। अत: इस गुणस्थान का पृथक् निर्देश उचित ही है। ५. देशविरत गुणस्थान- अप्रत्याख्यानावरण कषाय का ३.मिश्र (सम्यक्-मिथ्यादृष्टि) गुणस्थान- सम्यग्मिथ्यात्व क्षयोपशम होने पर जिन जीवों के एकदेशचारित्र प्रकट हो जाता है वे प्रकृति के उदय से जब किसी जीव की दृष्टि कुछ सम्यक् (शुद्ध) और देशविरति या संयतासंयत गुणस्थानवी कहे जाते हैं। प्रत्याख्यानावरण कुछ मिथ्या (अशुद्ध-विपरीत) हो जाती है तो उसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव कषाय के उदय से यहाँ पूर्ण संयमभाव तो प्रकट नहीं हो पाता, पर कहते हैं । जिस प्रकार मिले हुए दही और गुड़ का स्वाद मिश्रित (कुछ अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क के उपशम से श्रावकव्रतरूप देशचारित्र प्रकट खट्टा और कुछ मीठा) होता है उसी प्रकार मिश्रगुणस्थानवी जीव के हो जाता है। त्रस हिंसा से विरत रहने के कारण यह संयत या देशव्रती परिणाम भी सम्यक्त्व और मिथ्यात्व से मिश्रित होते हैं। बुद्धि-दौर्बल्य तो होता है, पर स्थावर-हिंसा से अविरत रहने के कारण वह असंयत के कारण इस जीव की सर्वज्ञकथित तत्त्वों में न तो सर्वथा रुचि ही होती भी होता है । इसीलिए आत्मविकास की इस भूमिका का अपर नाम है और न सर्वथा अरुचि ही । इसी से वह न तो पूर्ण सम्यग्दृष्टि होता 'संयतासंयत' या 'विरताविरत' भी है। मनुष्य और तिर्यञ्च इन दो है और न पूर्ण मिथ्यादृष्टि । मिले-जुले परिणामों के कारण ही वह जीव गतियों के जीव ही इस गुणस्थान के धारक हो सकते हैं । देव और सभ्यक्-मिथ्यात्वी कहलाता है। नारकियों के यह संभव नहीं, क्योंकि उनमें संयम का अभाव होता है। उत्क्रान्ति करने वाला जीव प्रथम गुणस्थान से तृतीय (मिश्र) इस गुणस्थान से आत्मा की यथार्थ उत्क्रान्ति आरम्भ होती की भूमिका में पहुँचता है अथवा अपक्रान्ति करने वाला चतुर्थ आदि है। चौथे गुणस्थान में जीव के श्रद्धा और विवेक जागृत होते हैं और गुणस्थानों की भूमिका से इस गुणस्थान की भूमिका में प्रविष्ट होता है इस (५३) में चारित्रिक विकास शुरू हो जाता है। श्रावक की ११ इस तरह उत्क्रान्ति और अपक्रान्ति करने वाले दोनों ही प्रकार के जीवों प्रतिमाएँ इसी गुणस्थान में होती है । को यहाँ आश्रय मिलता है । शीत और उष्ण की तरह ६.प्रमत्तविरत गुणस्थान- आत्मविकास की इस भूमिका में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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