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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ नहीं, बल्कि जैन-अजैन सभी की आस्था का केन्द्र है । सरहिंद युद्धों का क्षेत्र रहा है । बन्दा सिंह बहादुर ने यहां की ईंट से ईंट बजा दी थी । युद्ध क्षेत्र में भी माताजी का भवन सुरक्षित रहा है । पास में चमत्कारी जलकुण्ड है, जिस में पानी खत्म नहीं होता, इसे अमृत कुण्ड कहा जाता है । इस प्रकार प्राचीन पंजाब का पुरातत्व बहुत ही विस्तृत था । हर काल में यहां जैन धर्म किसी न किसी रूप में विद्यमान रहा । स्थनकवासी व तेरहपंथी परम्परा से पहले खरतरगच्छ व तपागच्छ व लोंकागच्छ के यतियों ने जैन धर्म का प्रचार अपने ढंग से किया । हमने यथा बुद्धि प्राचीन पंजाब के पुरात्तव क्षेत्रों का वर्णन किया है । कई म्युजमों में बाहर से लाई जैन प्रतिमाएं हैं, उनका पंजाब से कोई सम्बन्ध नहीं, इस लिए वर्णन नहीं किया गया । संर्दभ स्थल कणगखल णाम आसम पद दो पंथ उज्जुओ य वंकोप जो सो उज्जुओ सो कणगखल मज्झिण वच्चति वंको परिहरंतो - सामी उज्जुएण पघाइतो- आवश्यकचुर्णि 278. (कणखल आश्रम पद को पहुंचने के दो रास्ते हैं । एक सरल दूसरा लम्बा। दोनों रास्ते कणखल आश्रम (हरिद्वार) जाते थे । प्रभु महावीर ने छोटा रास्ता छोड़ लम्बा रास्ता ग्रहण किया । क. आवश्यक चूर्णि ख. भवगती सूत्र 25/3,3-6 3. भगवती सूत्र 4. विपाक सूत्र भिखराज महामेघवाहन खारवेल के शिलालेख के अंश क, 1. नमो अरहंतान 1. नमो सवसिधांन 1. ऐरेन महाराजेन महाभेघ वाहनेन चेतराजवंस - वघनेन पसथ सुभ लखनेन चतुरतल थुन-गुनो. पहितेन कलिंगधिपतिना सिरि खारवेलन । 2. मंडे च पुव राजनिवेसित - पीथड़ग द (ल) भ-नंगले नेकासयाति जनपद-भावनं च तेरस वस-सत-कुतुभद-तितं मरदेह संघातं 1 वारसमे च वसै-सेहि वितासपति उतरापथ राजानो 6. राजतरंगनी (1 - 101, 102, 103) (4-202) 7. भात भावगत विष्णु, वायु, पदम आदि सभी पुराणों में भगवान ऋषभ का उल्लेख है । इन पुराणों से उत्तर भारत में जैनधर्म की स्थित पर प्रकाश पडता है । 8. कुमारपाल प्रबोध प्रबन्ध के अनुसार राजा कुमारपाल ने अपने देशों में जैन धर्म को राज्य धर्म घोषित किया । पूर्ण अहिंसा का पालन करवाया। जनहित कार्य किये मन्दिर बनवाये । लोगों को न्याय पर आधारित शासन प्रदान किया । 10. क. वारह नेमिसर तणए, थपिथ राय सुसरमि आदिनाह अंबिका, सहिये, कंगड़कोट सिहरमि (नगरकोट विनती स. 1488) (ख) ज्वाला मुखी तीर्थ पर जैन प्रतिमा होने का प्रमाण आचार्य श्री जय सागरोपाध्याय कृतचैत्य परिपाटी (समय विक्रम संवत 1500 के लगभग) में इस प्रकार मिलता है - इस नगरकोट षमुकरव ठाणेहि जयजिणभइ वंदिया ते वीर लउकड देवी जाल मुखिय मन्नई वंदिया । अर्थात :-'यह कांगडादि क्षेत्रों में मैंने जिनेश्वरों भगवान की प्रतिमा को नमस्कार करते समय इस क्षेत्र में वीरलकुंड और देवी ज्वालामुखी की मान्यता भी देखी। (ग) ओम संवत 1296 वर्षे फाल्गुन वदि 5 रवौ कीरग्रामे वृहमा क्षेत्र गोत्रोपन्न व्यय. भानु पूत्राम्या व्यव्दोल्हण आलहण्भ्या स्वकारित श्री मन्महावीर जैनचैत्य श्री महावीर जिन बिम्ब आत्म ओयों (\) कारितं । प्रतिष्ठतं च श्री जिन वल्लभ सुरि संतानीय रुद्रपल्लीय श्रीमद भयदेव सूरि शिष्य श्री देव भद्र सूरि । एपीग्राफी इंण्डिया भाग एक पृष्ठ 118 संपादक डा. वुल्हर. हेगेन्द्र ज्योति* हेमेन्य ज्योति 111 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति। Jata nte
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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