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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ न राग से वीतराग की ओर साध्वी अनंतगुणाश्री आर्य भूमि पर जन्मा हर मानव महावीर नहीं होता | कर्म भूमि पर जन्मा हर मानव कर्मवीर नहीं होता || पुरुषार्थ से ही आदमी का स्वरूप बनता बिगड़ता है | धर्म भूमि पर जन्मा हर मानव धर्मवीर नहीं होता || जो व्यक्ति राग पर विजय पाता है अर्थात् राग को छोड़ देता है वह विरागी बन सकता है, और जो राग-द्वेष दोनों को छोड़ देता है, वह वीतरागी कहलाता है । वर्तमान में जैन धर्म में जीव या आत्मा का लक्षण धार्मिक विषयों को लेकर भी राग-द्वेष अत्यधिक बड़ा हुआ है । जहाँ राग-भाव है वहाँ धर्म नहीं है क्योंकि धर्म विराग में है, समता में है । जैसे घोड़े से वही उतरेगा जो पहले उस पर चढ़ेगा, उसी प्रकार जिसने कुछ पकड़ा ही नहीं वह छोड़ेगा क्या? जहाँ तक पकड़ने की बात है, आज सारा विश्व राग को पकड़े हुए है, सभी राग के घोड़े पर सवार है । प्रश्न है, मानव-मात्र को राग से किसने जोड़ा? मानव को रागी किसने बनाया? वास्तव में राग को पकड़ना मनुष्य के बस की बात नहीं है, वह स्वतः जन्म से ही राग से जुड़ता चला जाता है । अतः वह उसे छोड़े तो कैसे? राग (मह) का व्यावहारिक अर्थ है जादू । जैसे मदारी जादू से बांध बनाकर दिखा देता है एवं उसे गायब भी कर देता, किंतु वास्तव में उसका अस्तित्व कुछ नहीं होता, ठीक वैसे ही मैं एवं मेरा का भी कोई अस्तित्व नहीं है, किन्तु ऐसा लगता है कि 'मैं' हूं और मेरा भी है । यही माया है और इसी से राग का जन्म होता है । माया को समझे बिना राग से पीछा छुड़ाना असंभव है । राग का दमन हो सकता है, किन्तु दबा हुआ बीज तो कभी भी अंकुरित हो जाएगा। राग को त्यागकर विराग की ओर बड़े इसके लिए पहले माया को समझें और बार-बार सोचे कि जो दिख रहा है, वह है नहीं, और जो है वह दिखाई नहीं दे रहा । 'गीता में भी कहा गया है - “यदा तो मोह कलिलं बुदित्यतितरिष्यति । तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च |" इसलिए जो शुद्ध सच्चिदानंद आत्मा है, वह माया के कारण, दिखाई नहीं देती । 'मेरा पुत्र' मेरी पत्नी मेरा शरीर'। जब यह 'मेरा छूटने लगेगा तो हमारे कदम स्वतः ही विराग की ओर मुड़ जाएंगे । हम जिस संसार में रहते हैं वह भी 'मैं' 'मेरा' के आवरण के कारण एक भ्रामक सत्य के रूप में दिखाई देता है, किंतु यह भी मिथ्या है । न यह संसार सदा रहता है और न इस संसार में रहने वाले शरीर ही सदा रहते हैं। यह शरीर क्षणभंगुर, नश्वर, अशाश्वत है । शाश्वत तो सिर्फ आत्मा ही है । यह संसार भी क्षणभंगुर है, जीव यहां जन्म लेता है और मृत्यु को प्राप्त हो जाता है । अवनि कभी भी समाप्त नहीं हुई, उस पर चाहे प्रलय हुआ हो महामारी आई हो, भूकम्प उठे हैं । या ज्वालामुखी फटे हो, विनाश तो सिर्फ जीवों का ही हुआ है। मानव सभी जीव धारियों में सबसे अधिक विवेकशील प्राणी है। वह हंसता है, रोता भी है संकट आने पर विलाप भी करता है । जिससे भी उसका मोह होता है, उसका वियोग दुःख का कारण बन जाता है । संसार में दुःखों की जड़ इसी मोह को माना गया है । राग की भावना सदैव दुखों को निमंत्रण देती है । यथा श्री रामचंद्रजी स्वर्ण मृग को देखकर सीता के कहने पर उसका वध करने चल दिये । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्ट ज्योति 85 हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति Jainsion intami Detary
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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