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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ H मुनि लाभेशविजय 'राजहंस' त्याग और बलिदान की भूमि राजस्थान में अनेक सुविख्यात जैन तीर्थ है। इस लेख में उन सब जैन तीर्थों का परिचय न देते हुए हम केवल जालोर जिले में स्थित जैन तीर्थों का ही उल्लेख करेंगे। जालोर जिले में जैन धर्म के अस्तित्व के प्रमाण प्राचीन काल से ही मिलते हैं । उससे यह सहज ही कहा जा सकता है कि जालोर जिले में जैन धर्म उत्तमावस्था में रहा होगा । यही कारण भी रहा कि यहां जैन तीर्थ भी है और दूर दूर तक विख्यात हैं। जालोर जिले के जैन तीर्थो का संक्षिप्त विवरण उस प्रकार है 1. जैन तीर्थ स्वर्णगिरि जालोर : प्राचीन काल में कनकाचल नाम से विख्यात था। किसी तत्कालीन जैन राजाओं ने यक्षवसति व अष्टापद आदि जैन जो उल्लेख मिलते हैं उनके अनुसार वि. सं. 126 से 135 के उसका निर्माण करवाया होगा, ऐसा प्रतीत होता है । जालोर जिला मुख्यालय है । नगर के समीपवर्ती स्वर्णगिरि पर्वत पर तीर्थ स्थित होने से इसी नाम से विख्यात है । इस तीर्थ के सम्बन्ध में तीर्थ दर्शन (प्रथम खण्ड) में लिखा है कि यह स्वर्णगिरि समय यहाँ अनेक करोड़पति श्रावक निवास करते थे । मंदिरों का निर्माण करवाया था, ऐसा उल्लेख मिलता है । मध्य राजा विक्रमादित्य के वंशज श्री नाहड़ राजा द्वारा 点 जालोर जिले के जैन तीर्थ श्री मेरुतुंगसूरि विचित विचारश्रेणी व लगभग तेरहवीं सदी में श्री महेन्द्रसूरि विरचित अष्टोत्तरी तीर्थ माला में भी इसका उल्लेख मिलता है । सकलार्हत स्तोत्र में भी इसका नाम कनकाचल के रूप में उल्लिखित है । वि. सं. 1221 में राजा श्री कुमारपाल ने इस तीर्थ का उद्धार करवाया ऐसा उल्लेख भी मिलता है । जालोर का एक नाम जाबालिपुर भी मिलता है, जो जाबालिऋषि के नाम पर रखा गया। ऐसा कहा जाता है कि यहां बहत्तर जिनालय थे । सं. 1336 में अलाउद्दीन ने जालोर पर आक्रमण किया था, तब उसके द्वारा इस गिरि एवं नगर के आबू के सुप्रसिद्ध मन्दिरों की स्पर्धा करने वाले मनोहर एवं दिव्य जिनालयों का विनाश हुआ था। उन जिनालयों की स्मृति दिलाने वाली तोपखाना मस्जिद, जिसका निर्माण जिनालयों के पाषाण खण्डों से करवाया गया था, आज भी विद्यमान है । इस मस्जिद में लगे अधिकांश पाषाण खण्ड मन्दिरों के है और अखंडित भाग तो जैन पद्धति के अनुसार है। इसके स्तम्भों पर शिलाओं पर अभिलेख उत्कीर्ण है। कितने ही लेख सं. 1194 1239, 1268, 1320 आदि के हैं । स्वर्णगिरि में राजा कुमारपाल ने भगवान् पार्श्वनाथ का मन्दिर बनवाया था जिसे कुमार विहार के नाम से जाना जाता है । इसकी प्रतिष्ठा सं. 1221 में श्री वादीदेव सूरि के कर कमलों से होने का उल्लेख है । वि. सं. 1256, 1265 में भी अलग अलग आचार्यों द्वारा प्रतिष्ठा करवाने के उल्लेख मिलते हैं । Educator Inte वि. सं. 1681 में मुगल सम्राट जहांगीर के समय यहां के राजा श्री राजसिंह के मंत्री मुहणोत श्री जयमल के द्वारा एक जिन मन्दिर बनवाने एवं अन्य समस्त जैन मन्दिरों का जीर्णोद्धार रखाने का भी उल्लेख मिलता है। मंत्री जयमल की पत्नियों श्रीमती सरूपदे व सोहागदे के द्वारा भी अनेक जिन प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित करवाने का उल्लेख है। जिनमें से अनेक प्रतिमाएँ विद्यमान है । श्री महावीर भगवान के मंदिर का जीर्णोद्धार मंत्री जयमल ने करवाया और श्री जयसागरगणि के हाथों प्रतिष्ठा करवाने का भी उल्लेख है। यहां स्थित यक्ष वसति मन्दिर जिसका उद्धार राजा कुमारपाल ने करवाया था, उसका अन्तिम उद्धार आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरिजी म.सा. के उपदेश से सम्पन्न हुआ था । आचार्य श्री उद्योतन सूरि ने वि. सं. 835 में यहां के श्री आदिनाथ भगवान के मन्दिर में अपने ग्रंथ कुवलयमाला की रचना पूर्ण की थी । उस समय यहां अनेक मन्दिर थे । अष्टापद नामक एक विशाल मन्दिर भी था । उसका उल्लेख आबू के लावण्यवसहि के वि. सं. 1296 के अभिलेख में मिलता है । हमे ज्योति ज्योति 73 मेजर ज्योति हेमेन्द्र ज्योति www.ainelibrary.or
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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