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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ संस्कार निर्माण के बाधक तत्व संस्कार निर्माण से हमारा तात्पर्य विस्मृत सद्गुणों एवं मानवीय मूल्यों को पुनर्जीवित कर उन्हें एक नया जीवन प्रदान करना है । यह कोई आसान कार्य नहीं हैं । कारण इस दिशा में विभिन्न प्रकार की बाधाएं खड़ी है जैसे मनुष्य का मिथ्याभिमान, स्वार्थ, भौतिक वस्तुओं के भाग की लिप्सा व्यसनों के - क्षणिक रसास्वादन का लोभ एवं उनमें अनुरक्त हो जाना आदि । इन सबके कारण मनुष्य अपने प्राकृतिक स्वरूप को भूलता जा रहा है । वह दुर्व्यसनों का शिकार होता जा रहा है और कुसंस्कारों के जाल में उलझता जा रहा है । संस्कार निर्माण के कई बाधक तत्व हो सकते हैं उनमें से कुछ का उल्लेख निम्नलिखित है स्वार्थवृत्ति - प्रमाद, राग, ममत्व के वशीभूत होकर स्वयं के लिए ही कार्य करना स्वार्थवृत्ति है । इसके कारण व्यक्ति मात्र वैयक्तिक हित साधन हेतु सीमित हो जाता है । उसकी यह प्रवृत्ति संस्कारों को मलिन करती ही है साथ ही साथ बहुत सारे संस्कारों से भी उन्हें विरत कर देती है - मात्र इस चिन्तन के आधार पर कि उनसे मुझे क्या लाभ है? संवेदनहीनता - स्वार्थवृत्ति का एक परिणाम संवेदनहीनता के रूप में उत्पन्न होता है । उस वृत्ति से पीड़ित व्यक्ति दूसरों के कष्ट दूर करने का प्रयत्न ही नहीं करता । क्योंकि उनके अन्तस में इस तरह के भाव ही नहीं पनपते । यदि कदाचित् ऐसा हो भी जाए तो संवेदनशीलता के अभाव में वे उसे निर्दयतापूर्वक दबा देते हैं । वे अप्रमाणिकता, अनैतिकता, मिथ्यात्व को अपनाने में प्रसन्नता का अनुभव करते हैं । असमत्वभाव - सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय आदि में समान भाव रखना, सभी प्राणियों को समान समझना समता है । इसके विपरीत भाव असमता है । यह प्रवृत्ति मनुष्य के हृदय में कुसंस्कारों को जन्म देती है। वह अन्य सभी को तुच्छ समझने लगता है । सर्वत्र अपनी प्रशंसा एवं जय की ही कामना रखता है । असंतुलित संवेग - प्रायः मनुष्य अपने संवेगों से चालित होता है । क्रोध, मान, माया, लोभ, भय, तिरस्कार, ईर्ष्या आदि संवेग के विभिन्न प्रतिरूप है। इन पर नियंत्रण रखना अत्यंत आवश्यक है, अन्यथा संस्कारों को विघटित होने से वे नहीं बचा सकते । आज प्रायः ये सारे संवेग अनियंत्रित हो गए हैं । इनका संतुलन बिगड़ गया है । परस्परता की श्रृंखला का अभाव - आचार्य उमास्वाति ने परस्परोपन हो जीवाजाम् का सूत्र दिया जिसका अर्थ है - एकदूसरे का सहयोग करना ही जीव का स्वभाव है | संस्कार भी स्वभावदशा का द्योतक है । लेकिन आज मनुष्य अपनी उस सहजता से विमुख हो गया है परिणामस्वरूप उन्हें कुसंस्कारों के कारण उत्पन्न अग्नि की ज्वाला के ताप को सहना पड़ रहा है । भोगवादी संस्कृति का प्रभुत्व - भोगवादी संस्कृति की विशेषता भौतिक साधनों का भरपूर प्रयोग एवं आध्यात्मिक वृत्तियों का परित्याग शारीरिक एवं बौद्धिक विकास के सर्वाधिक प्रयत्न तथा मानसिक एवं भावनात्मक विकास की उपेक्षा । उनके कारण व्यक्ति में चारित्रिक पतन, अनुशासनहीनता, कर्तव्यपराङ्मुखता अराजवृत्तियों का उदय होता है जो कुसंस्कारों का पोषण करते हैं । उपर्युक्त सारे सन्दर्भ संस्कार निर्माण में बाधक बनते हैं । उनके प्रभाव से व्यक्ति व्यसनों का सेवन करने लगता है और अंततः वह उनका आदी बन जाता है । संस्कार निर्माण एवं व्यसनमुक्ति की प्रक्रिया संस्कार एवं व्यसन शब्द के अर्थबोध से हम यह समझ गए है कि मानव जीवन में उनका अत्यंत महत्व है। संस्कार जहाँ अच्छे भाव का सूचक माना गया है वही व्यसन शब्द गलत एवं नकारात्मक भाव का प्रतिरूप समझा गया है । इसी कारण एक ओर अगर संस्कार निर्माण की बात की जाती है तो दूसरी तरफ व्यसन मुक्ति का प्रसंग छोड़ दिया जाता है। कहने का अर्थ यह है कि व्यसन के त्याग पर बल दिया जाता है जबकि संस्कार को स्वीकार करने की बात की जाती है। ऐसा क्यों? इस तथ्य से हम भली भांति परिचित है । उसी अनुक्रम में हम यहां यह भी बताना चाहेंगे कि दोनों ही शब्दों के कई अर्थ किए गए हैं । अतः जब संस्कार निर्माण एवं व्यसन मुक्ति का प्रसंग हमारे समक्ष उपस्थित होता है तो इसके साथ-साथ उनसे जुड़े अन्य पक्षों पर भी ध्यान चला जाता है । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 47 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति oniriternations Fore P Only
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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