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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ उत्तम आहार शाकाहार: - श्रीमती रंजना प्रचंडिया 'सोमेन्द्र' सामान्यतः आज जब भी शाकाहार की चर्चा होती है तो छूटते ही मन में यह बात उभरती है कि शाकाहार अर्थात् शाक/भाजी का आहार करना, सेवन करना । यह एक आम धारण है कोई भी साग / सब्जी जैसे गाजर, मूली, बैंगन, गोभी, आलू, टमाटर, कटहल, प्याज, शलगम, लहसुन आदि अनेक प्रकार की कृषि उत्पाद वस्तुएं इस श्रेणी में आती हैं । दरअसल शाकाहार का स्थूल अर्थ तो यही है । किन्तु जब हम जैन संस्कृति के आधार पर शाकाहार शब्द की चर्चा करते हैं, तब शाकाहार से आशय थोड़ा पृथक हो जाता है । जैन संस्कृति के आधार पर शाकाहार : जैन संस्कृति में सभी कृषि-उत्पादों को खाद्य वस्तु नहीं बताया गया है । वे सब्जियां जो जमीकन्द हैं, जैसेगाजर, मूली, आलू, अदरक आदि या जिनमें त्रसकाय जीवों की असंख्यात संख्या होती है, जैसे - गोभी, बैंगन कटहल या जिनमें तामसी भोजन की उत्पत्ति होती है-जैसे प्याज, लहसुन आदि । ये सभी शाक / भाजी अखाद्य की श्रेणी में आते हैं । इस दृष्टि से गेंहूँ, चावल, आम, अमरूद, सेब, संतरा, लौकी, तोरई आदि सभी भक्ष्य व सात्विक सब्जियां हैं जिन्हें शाकाहार के रूप में प्रयोग किया जा सकता है । वे साग / सब्जी जिनका परिचय या बोध हमें है ही नहीं, अज्ञात हैं, वे भी अखाद्य की श्रेणी में आ जाती हैं । भोजन की आवश्यकता क्यों व किसलिए : जैन संस्कृति में भोजन के महत्व पर विशेष बल दिया है । 'जैसा खाबे अन्न वैसा होबे मन' की उक्ति जनमानस में आज भी व्याप्त है । मूल बात है कि हम भोजन क्यों कर रहे हैं? क्या हमारे जीवन का उद्देश्य भोजन करना है? नहीं। भोजन तो हम शरीर को गतिशील करने के लिए कर रहे हैं जिससे हम तप-साधना कर सकें। हम अपने कर्मों को क्षय करने में जुट सकें । इसीलिए कहा जाता है, कि हमारा भोजन भजन इस प्रकार से होना चाहिए, जिससे हमारे भीतर चेतन्यता मौजूद रहे और हम बिना किसी प्रमाद के संयम, तप और साधना में निमग्न हो सकें । मन-वचन-कर्म से शाकाहार होना : जैन संस्कृति में श्रावकों के द्वारा जब भोजन किया जाता है तो भोजन करने से पूर्व वे अपने मन-वचन और कर्म में शुद्धता व शुचिता का भाव पहले से ही सजग कर लेते हैं । अतः ये शुद्धभाव तभी जागृत होते हैं जब हमारे भीतर पुरुषार्थ मौजूद हो । जिस कमाई से भोजन का निर्माण हो वह मेहनत के साथ-साथ शुद्ध ईमानदारी से जुड़ा हो । किसी के दिल को दुःखा कर कमाये गये धन का कभी भी शुभोपयोग नहीं हो सकता । अतः मन-वचन-कर्म से पहले हमें शाकाहार होना होगा । आचरण की शुद्धता और शाकाहार : आचरण की शुद्धता, उत्तम-शाकाहार का पहला चरण है । इस 'शब्द' में मांसाहार की 'बू' दूर-दूर तक नहीं टिक पाती है । किन्तु 'मदिरा' और 'मधु' का सेवन करने वाला व्यक्ति आचरण से भी स्खलित हो जाता है । तब उसका शाकाहार, शाकाहार नहीं रह पाता है । मदिरापान एक ऐसी बराई है जिसमें अनन्त जीवों की घात / प्रतिघात निरन्तर होता रहता है । साथ ही उसकी प्रज्ञा धीरे-धीरे नष्ट होते लगती है । बुद्धि क्षीण हो जाती है और अंत में वह स्वयं बोझा ढोते वाला शरीर रह जाता है । 'मधु' भी जीवों के घात/प्रतिघात का स्पष्ट उदाहरण है । अतः भले ही हम सीधे मांसाहार का सेवन हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्य ज्योति 41 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति w.aimejlurary.ads
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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