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________________ Jajn श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन विभिन्न प्रकार के आकर्षक चित्रण है। एक आयागपट्ट पर जिसका दान मथुरावासियों ने किया था, तिलकरत्नों से घिरा 16 अरयुक्त चक्र हैं। इस पर आठ पुष्पधारिणी स्त्रियां है। साथ ही सुपर्ण एवं श्रीवत्स का भी चित्रण हैं। आयागपट्ट के मध्य बना हुआ चक्र वस्तुतः जैन धर्म चक्र का प्रतीक है । एक आयागपट्ट शिवघोष की पत्नी द्वारा निर्मित कराया गया था । इसके मध्य भाग में सात सर्प फणां से युक्त पार्श्वनाथ ध्यानास्थ बैठे हैं । उन्हें पद्मासन मुद्रा में दिखलाया गया है । उनके दोनों ओर नग्न गणधर नमस्कार मुद्रा में हाथ जोड़े खड़े हैं । आमोहिनी नामक एक राज महिला द्वारा प्रतिष्ठापित आयागपट्ट पर एक संभ्रान्त महिला परिचारकों के साथ अंकित है । ऐसा लगता है कि यह अंकन वर्धमान महावीर की मां का है क्योंकि उत्कीर्ण अभिलेख में वर्धमान के प्रति श्रद्धा व्यक्त की गयी है । शिवयशस द्वारा प्रतिष्ठापित आयागपट्ट पर एक जैन स्तूप का चित्रण है जिसके साथ सीढ़ियों, द्वार, प्रदक्षिणापथ तथा दोनों ओर स्तूप के सहारे स्त्रियों का भी स्पष्ट अंकन है । सीहनादिक द्वारा निर्मित कराये गये आयागपट्ट पर छत्र के नीचे जिन का चित्रण है । इसके अतिरिक्त इस आयागपट्ट पर मीन युगल, विमान, श्रीवत्स, वर्धमानक, पद्म, इन्द्रयष्टि (वैजयन्ती) एवं मंगल कलश भी चित्रित है । जैन शब्दावली में इन्हें अष्टमंगल कहा जाता है । इस पर उत्कीर्ण धर्मचक्रस्तम्भ एवं गजस्तम्भ पारसीक अखामनी शैली के हैं । मथुरा में जैन कला का कुषाण काल (प्रथम- तृतीय शती ई.) में विशेष विकास हुआ । मथुरा के कलाकारों ने तीर्थंकरों की मूर्ति । जिन्हें पहचाना जा सकता है । सर्वतोभद्रिका प्रतिमा एवं तीर्थंकरों के जीवन से सम्बन्धित कथानक का चित्रण किया । जैन कला के इतिहास में इस काल में एक नवीन अध्याय जुड़ा । कुषाण काल में भी आयागपट्टों का निर्माण होता रहा । कुछ आयागपट्ट पाये गये हैं जिनका जैन कला और संस्कृति के सन्दर्भ में विशेष महत्व है। कुषाण काल में जैन धर्म को समाज के विभिन्न वर्गों का सहयोग एवं संरक्षण प्राप्त हुआ । एक आयागपट्ट पर स्तूप का पूरा चित्रण है। प्रदक्षिणापथ तक पहुंचने के लिए सीढ़ियां भी हैं। स्तूप के दोनों ओर पारसीक शैली के स्तम्भ है। इसे लोणशोभिका नामक वेश्या की पुत्री वसु ने दान में दिया था जिसने अर्हत के लिए मन्दिर आयागसभा, शिल्पपट्ट निर्मित कराया था । आयागसभा नाम से संकेत मिलता है कि यह एक सभा भवन या जिसमें आयागपट्ट रखा गया। वह स्थान विशेष "निर्ग्रन्थ स्थल रहा था। एक अन्य आयागपट्ट पर एक बड़े आकार का अलंकृत स्वास्तिक है जिसकी भुजाओं के घेरे में कुछ प्रतीक यथा स्वस्तिक, श्रीवत्स, मीनयुगल और भद्रासन (इन्द्रयष्टि) भी बनाये गये हैं । विशाल आकार के स्वस्तिक के मध्य बने वृत्त में जिन एवं त्रिरत्न का चित्रण है। स्वस्तिक अभिप्राय एक वृत्त से घिरा है जिसके बाहर चैत्य वृक्ष, जिन उपासिकाएं, स्तूप आदि चित्रित हैं । इसके साथ अष्टमंगल भी बनाये गये हैं । एक अन्य आयागपट्ट भद्रनन्दि की पत्नी अचला द्वारा प्रतिष्ठापित किया गया था । इस आयागपट्ट के मध्य भाग जिन का अंकन है । इस पर त्रिरत्न, स्तम्भ आदि आकर्षक चित्रण है । जैन कला का सर्वाधिक महत्वपूर्ण आयाम तीर्थंकर मूर्तियों का निर्माण किया जाना है। प्रारम्भिक मूर्तियों में तीर्थंकर विशेष को पहचानना कठिन है। लेकिन कुषाणकालीन कलाकारों ने इस ओर कुछ प्रयत्न किया जो आगे चलकर सुदृढ़ परम्परा के रूप में विकसित हो सका । जैन धर्म में 24 तीर्थंकरों में से ऋषभनाथ, नेमिनाथ पार्श्वनाथ एवं महावीर को प्रारम्भ में विशेष महत्व दिया गया । इन तीर्थंकरों का विवरण कल्पसूत्र (तीसरी शती ईस्वी) में विस्तार से मिलता है। ऐसा प्रतीत होता है कि 24 तीर्थकरों की सूची को भी कुषाण काल में ही अन्तिम रूप दिया गया। कुषाण कलाकारों द्वारा बनायी गयी मूर्तियों में ऋषभनाथ, संभवनाथ, मुनिसुव्रत, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर को पहिचानना सम्भव हो सका । इन मूर्तियों में तीर्थकरों को ध्यान अथवा कायोत्सर्ग-मुद्रा में दिखलाया गया । साथ ही उनके वृक्ष पर श्रीवत्स चिह्न अंकित किया गया। ऋषभनाथ एवं पार्श्वनाथ की सर्वाधिक मूर्तियां निर्मित हुई जो उनकी लोकप्रियता का संकेत हैं । ऋषभनाथ के कन्धों तक केश तथा पार्श्वनाथ के साथ सात सर्पफणों का छत्र दिखलाया गया । नेमिनाथ, जिन्हें अरिष्टनेमि भी कहा गया, के साथ उनके चचेरे भाई बलराम एवं कृष्ण को भी चित्रित किया गया । संभवनाथ मुनिसुव्रत एवं महावीर की मूर्तियों के आधार भाग पर उत्कीर्ण अभिलेखों के कारण पहचाना गया । इन मूर्तियों में कई प्रतिहार्य भी अंकित किए गये। साथ ही आधार भाग पर धर्मचक्र के साथ साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका पुष्प लिए अथवा हाथ जोड़े दिखलाये गये । Intera हेमेल ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 37 हेमेला ज्योति हेमेला ज्योति taneller
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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