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________________ O श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ मांडव का जैन कला-वैभव : कुछ पहलू की जैन मूर्तिकला - मांडव में जैन मन्दिर एवं प्रतिमा निर्माण की पर्याप्त चर्चा ऊपर की जा चुकी है। स्थानाभाव के कारण उनका शिल्प-शास्त्रीय विवेचन यहां नहीं किया जा रहा है । जिस बर्बरतापूर्वक इनका विनाश या विध्वंस किया गया, वह इतिहास का एक वेदनामय अध्याय है । मांडवगढ़ में उपलब्ध जैन मूर्तियों पर जो पाद-पीठलेख उत्कीर्ण किये गये उनकी संख्या 25 से अधिक है। मांडवगढ़ की ये प्रतिमाएं उपकेश, श्रीमाल, प्राग्वाट, ओसवाल, सोनी आदि ज्ञातियों के श्रेष्ठियों द्वारा प्रतिष्ठित की गई। इन प्रतिमा लेखों में कोरंट, बृहत्त तपा, अंचल, खरतर, नागपुरीय तपा आदि गच्छों का उल्लेख हुआ है । सर्वाधिक उल्लेख तपा पक्ष का है । जिन बिंबों पर यह उत्कीरण हुआ है, उनमें तीर्थंकर आदिनाथ, संभवनाथ, अजितनाथ, चन्द्रप्रभ, सुव्रतस्वामी, शान्तिनाथ, पार्श्वनाथ, कुंथुनाथ, महावीर आदि रहे हैं । इन प्रतिमाओं का समय, लेखांकित तिथियों के अनुसार, संवत् 1483 से संवत् 1696 तक का है । मांडू की जैन चित्रकला - संभव है मालवा में बारहवीं से तेरहवीं सदी तक की चित्रकला की कुछ परम्पराएं रही हों। इसके बाद चौदहवीं और पंद्रहवीं सदी में चित्रकला की विशिष्टताएं स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होने लगी। सुलतानों के शासन काल में इस चित्रकला को स्थायित्व प्राप्त हुआ । इस समय मांडू, नालछा और धार में जैन मतावलंबी व्यापारियों और व्यवसायियों का बाहुल्य था । ये मांडू में विशेष धन सम्पन्न और प्रभावशाली थे । मांडू के सुलतानों के दरबार में भी इनका विशिष्ट प्रभाव था । इनमें नरदेव सोनी, संग्रामसिंह और जसवीर प्रमुख थे । इनकी आर्थिक सहायता, विपुल प्रोत्साहन और उदार संरक्षण से मांडू और नालछा में जैन मुनियों ने जैन धर्म के धार्मिक व लौकिक ग्रन्थों की रचना की । जैन धर्म के कल्पसूत्र तथा अन्य ग्रंथों की हस्तलिखित प्रतियां तैयार की जाने लगीं । सन् 1436 में इस प्रकार तैयार की गई एक जैन ग्रन्थ की प्रतिलिपि उपलब्ध है । इन ग्रंथों के पृष्ठों पर उनके विषय से संबंधित गाथाओं के चित्र बड़े आकर्षक रंगों में चित्रित किये गये हैं । ग्रन्थ के पृष्ठों के किनारे फूल-पत्तियों और बेल-बूटों से चित्रित किये जाते थे । इनमें लाल, पीले, और सुनहले रंगों का उपयोग होता था। मानव आकृतियां भी सुंदर आकर्षक ढंग से चित्रित की जाती थीं । इस चित्रकला पर पश्चिमी भारत की जैन चित्रकला का प्रभाव था । मांडू में जैन हस्तलिखित ग्रंथों में कल्पसूत्र विशेष रूप से चित्रित किये गये हैं । ऐसा ही एक कल्पसूत्र ग्रंथ जिसकी पांडुलिपि और चित्रण मांडू में सन् 1498 में हुआ था, उपलब्ध है । यह मांहू-कल्पसूत्र के नाम से प्रसिद्ध है । इस ग्रन्थ में अक्षर लाल पृष्ठभूमि में सुनहले रंग से लिखे गये हैं | बेल-बूटों व फूल-पत्तियों के अलंकरण की पट्टियों से इस ग्रन्थ के प्रत्येक पृष्ठ के दो भाग खड़े रूप में कर दिये गये हैं और बायें भाग में ग्रंथ के अक्षर गद्य-पद्य में लिखे गये हैं । ग्रंथ में वर्णित जैन बातों को समझाने के लिये ये चित्र अंकित किये गये हैं । मनुष्यों, पशु-पक्षियों और देवी-देवताओं के विभिन्न चित्र बनाये गये हैं । राजप्रासाद या राजभवन के आकार का अंकन, राजपुरुषों और राजमहिषियों की बैठी हुई आकृतियां, एक दूसरे को काटते हुए वृक्षों से वक्षःस्थल का चित्रण, पुरुष वक्षःस्थल का अधिक उभरा हुआ चित्रण, वृषभ और गाय का विशेष रूप से चित्रण, अश्व के चित्रण में मेहराब-सी झुकी गर्दन और अनुपात से छोटा सिर ये तत्व जैन ग्रन्थों की चित्रकला की विशेषताएं हैं । पुस्तक के चित्रण में लाल, नीले और सुनहले रंगों का बाहुल्य है । परन्तु इस चित्रण में ग्राम्य जीवन या लोक जीवन की झांकी नहीं है । चित्रकला धर्म से प्रभावित हुई है । धार्मिक बातों और गाथाओं को समझाने और स्पष्ट करने के लिये चित्रकला का उपयोग किया गया है । परन्तु मांडू सुलतानों शासन काल के उत्तरार्ध में मालव चित्रकला का यह स्वरूप परिवर्तित हो गया । मालवा के मांडू में निर्मित चित्र गुजरात की चौदहवीं से सोलहवीं शताब्दी तक की चित्रकला से प्रभावित रहे। इस काल के कल्पसूत्रों की दो जैन पांडुलिपियां प्रकाश में आई जो उक्त तथ्य को प्रकट करती हैं । सन् 1492 की हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 26 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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