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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ ऐसा लगता है कि गियाथाशाह के शासन काल के उत्तरार्द्ध में जैनियों में पारस्परिक स्पर्द्धा बढ़ गई थी, जो समकालीन राजनीतिक परिस्थितियों की देन थी । शिवदास बक्काल राजवंश के पारिवारिक विग्रह में शहजादा नसीरशाह के साथ था जबकि मुंज बक्काल शहजादा शुजातखाँ और रानी खुर्शीद के साथ । इस विग्रह के परिणामस्वरूप दोनों को ही अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा" । महमूद खिलजी के समय संग्रामसिंह सोनी का महत्व काफी बढ़ गया था । उसका महत्व गियाथशाह के समय भी कायम रहा। उसे नकद-उल-मुल्क' की उपाधि गयासुद्दीन ने प्रदान की थी । गियाथशाह के समय जैन धर्म के विकास की पर्याप्त सूचना "सुमति-संभव-काव्य", "जावड़—चरित" और 'जावड़-प्रबन्ध' नामक ग्रंथों से भी मिलती है। मांडव के जावड़शाह का उल्लेख करना यहां समीचीन होगा । "कल्प-प्रशंस्ति" नामक ग्रंथ में जिस खरतरगच्छीय जैन परिवार का उल्लेख आया है, वह श्रीमाली - कुल भगटगोत्रीय था। इस वंश में उत्पन्न जसधीर, आचार्य जिनसमुद्र सूरि का श्रद्धालु शिष्य था । वह एक दानशील और धार्मिक संघपति था । उसके दामाद का नाम मंडन था जिसे कुछ लेखकों ने भूल से मांडव के प्रसिद्ध मंत्री मंडन मान लिया है। वस्तुतः यह मंडन श्रीमाली कुल के किसी जयता नामक व्यक्ति का पुत्र था और उसका निकट संबंध खरतरगच्छ आचार्य जिनचन्द्रसूरि और जिनसमुद्रसूरि से था " । इसी समय एक और जावड़ मांडव में हुआ । वह तपागच्छीय था तथा जसधीर की सबसे छोटी बुआ का पुत्र था । उसके पिता का नाम राजमल्ल था । जावड़ का उल्लेख वाचनाचार्य सोमध्वज के शिष्य खेमराजगणि के गुजराती ग्रंथ "मांडवगढ़-प्रवासी" में आता है। सर्वविजयगणि नामक जैन कवि ने भी अपने काव्य-ग्रंथों में उसका उल्लेख किया है । सोमचरितगणि की रचनाओं में भी उसका उल्लेख है । वंश-परम्परा के अनुरूप जावड़ को भी राजदरबार में प्रतिष्ठित पद प्राप्त था । गयासुद्दीन सदैव उसका सम्मान किया करता था । सुलतान ने उसे उत्तम व्यवहारों की उपाधि से विभूषित कर कोषाध्यक्ष नियुक्त किया था । इसीलिये उसे सुलतान का " श्रीमाल - भूपाल" भी उसका एक विरूद था । इससे स्पष्ट है कि उसे अपने समाज में पर्याप्त प्रतिष्ठा प्राप्त थी। उसे अर्बुदाचल और जीरापल्ली की तीर्थ-यात्रा करने के बाद 'संघपति' की उपाधि दी गई थी । वह तपागच्छीय आचार्य लक्ष्मीसागरसूरि तथा उनके पट्ट शिष्य समुति साधुसूरि का असीम भक्त था । जावड़ ने अनेक जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करवाई भी तथा मांडव में तपागच्छ के अनुयायियों का एक विशाल आयोजन सम्पन्न करवाया था । इस अवसर पर 104 जिन प्रतिमाएं प्रतिष्ठित की गई थी। 23 सेर की एक चांदी की मूर्ति और 11 सेर की एक स्वर्ण-प्रतिमा को छोड़कर शेष सभी प्रतिमाएं पीतल की थीं । उन्हें हीरक- खचित छत्रों तथा बहुमूल्य आभूषणों से सजाया गया था । प्रतिष्ठा समारोह पर जावड़शाह ने 15 लाख रुपये खर्च किये थे। Jain Education जावड़ ने मांडू में ऋषभनाथ, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ तथा महावीर इन पांचों तीर्थंकरों के विशाल मंदिरों का निर्माण करवाया था । उसके द्वारा निर्मित ये मंदिर उस समय मांडू के मुख्य देवायतन थे । इसके अतिरिक्त भी मांडव में अनेक जैन मंदिर और भी थे, जिन सबका उल्लेख करना समीचीन नहीं हैं। नासिरूद्दीन खिलजी (1500-1511) नासिरूद्दीन के राज्य काल में भी जैन धर्म और जैन समाज को पूर्ववत् संरक्षण मिलता रहा । उसके समूचे राज्य काल में संग्रामसिंह सोनी "नकद-उल-मुल्क" की स्थिति में यथावत् बना रहा । मंडन का भतीजा पुंजराज अभी भी "हिन्दुआ - राय" पुकारा जाता था । जीवणशाह, गोपाल आदि इस काल के महत्वपूर्ण जैन व्यक्ति थे । सन् 1504 में ईश्वरसूरि नामक कवि ने "ललितांग-चरित" नामक एक रोचक काव्य-ग्रंथ दशपुर में रचा था जिसमें श्री पातिसाह निसीर का उल्लेख आया है । इस ग्रंथ का दूसरा नाम "रासक-चूड़ामणि- पुण्य-प्रबंध' भी कहा गया है। सन् 1508 ईस्वी में मंडप दुर्ग में मलधारगच्छ के कवि हीरानंद ने "विद्या-विलास-पवाड़ों” नामक चारित काव्य की रचना की । इसी समय मालवा के आजणोद नामक गांव में सोलंकी रावत पदमराय की पत्नी सीता के दो पुत्र हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 24 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति w.jainel
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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