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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ मांडव में जैन धर्म में -डॉ. श्यामसुन्दर निगम, -डॉ. प्रकाशचन्द्र निगम मांडवगढ़ का प्राचीन नाम मंडपदुर्ग था । मंडप दुर्ग परमारों का एक सुरक्षित केन्द्र था | धार से कुछ ही किलोमीटर दूरी पर विंध्याचल के दक्षिणी छोर पर नर्मदा नदी के कुछ उत्तर में यह दर्शनीय गढ़ विद्यमान था । यह दुर्ग अत्यन्त सुरक्षित था । इस कारण प्राचीन और मध्य काल में यह जैनधर्म का एक महत्वपूर्ण केन्द्र बन गया था । मांडव और बूढ़ी मांडव क्षेत्र में जैन धर्म का प्रचार-प्रसार था । इसी दुर्ग के मध्य भाग में तारापुर स्थित था जहां श्री चन्द्रप्रभु स्वामी का गगनचुम्बी शिखर से युक्त एक प्रासाद था । सोलहवीं शती के प्रारंभ में ओसवंशीय आनन्द मुनि ने मांडवगढ़ को एक गिरि पर विद्यमान नगर माना था। खरतरगच्छीय मुनि मेरुसुंदर ने मंडप नगर को एक जनाकीर्ण एवं पुण्य नगर की संज्ञा दी, जबकि इसी गच्छ के कवि खेमराज ने इसे चैत्यों का नगर माना था। भट्टारक श्रुतकीर्ति ने 'हरिवंशपुराण में मांडवगढ़ को श्रेष्ठ मालव देश में स्थित माना था । इस नगरी में तारापुर नाम का एक उपनगर स्थित था। मंडन के "सिद्धांत को T" में मंडप को स्वर्ग की संज्ञा दी है । इस तरह "काव्यमंडन प्रशस्ति" में भी मांडव का नाम आया है । "उपदेश तरंगिणी", "परमेष्ठीप्रकाश सार" आदि ग्रन्थों में भी मांडव की चर्चा आई है। मांडव से ही कुछ दूरी पर नालछा और बूढ़ी मांडव नामक स्थल हैं । नालछा से बूढ़ी मांडव तक भारी मात्रा में पुरातत्त्वीय अवशेष बिखरे पड़े हैं । अधिकांशतः ये अवशेष जैन धर्म से संबंधित हैं। नालछा इस तरह से एक प्रकार से मांडव का एक उपनगर ही था । जैन ग्रंथों में इसका नाम नलकच्छपुर आया है। दामोदर कवि ने 13वीं सदी के पूर्वार्द्ध में रचित "जिनयज्ञ कल्प प्रशस्ति' में नलकच्छपुर की चर्चा की है। पंडित आशाधर ने नलकच्छपुर में अनेक चैत्यालयों की विद्यमानता की चर्चा की है। "जिनयज्ञकल्प प्रशस्ति" में इस नगर को एक चारू नगर माना है । उसके अनुसार नलकच्छपुर एक श्रावक संकुल बस्ती थी। वस्तुतः बारहवीं सदी में जब राजस्थान के मांडलगढ़ पर शहाबुद्दीन गौरी ने आक्रमण किया था तो बहुत से जैन परिवार पंडित आशाधर के साथ नलकच्छपुर आ गये थे । उनके आगमन से मांडव, नालछा और धार में जैन धर्म को पर्याप्त गति मिली थी । राजदरबार भी इन पंडितों का बड़ा सम्मान करता था । पंडित आशाधर लगभग पैंतीस वर्ष के लम्बे समय तक नालछा में ही रहे और वहां के नेमि-चैत्यालय में एकनिष्ठ होकर जैन-साहित्य की सेवा की ओर ज्ञान की उपासना करते रहे । उन्होंने अपने प्रायः सभी ग्रंथों की रचना यहीं की और यही पर ही वे अध्ययन अध्यापन का कार्य करते रहे । परमारों के संरक्षण तथा जैन भट्टारकों, मुनियों, साधुओं, आचार्यों और उपाध्यायों के उत्साही, प्रचार-प्रसार एवं मालवा के जैनियों की सम्पन्नता और उदारता के परिणामस्वरूप तत्कालीन मालवा के लगभग सभी प्रमुख नगरों और ग्रामों में जैन धर्म से सम्बन्धित अनेक निर्माण संपन्न हुए । रत्नमंडन गणि की रचनाओं से ज्ञात होता है कि 13वीं शताब्दी में परमार नरेश जयसिंहदेव तृतीय के समय मांडव में उसके मंत्री पेथड़कुमार तथा पेथड़ के पुत्र झांझण ने अनेक मंदिरों, धर्मशालाओं तथा जैन ग्रन्थालयों का निर्माण करवाया । इस विषय में मांडव, धार, नालछा आदि स्थानों के सम्पन्न जैन श्रेष्ठीगण भी पीछे नहीं रहे। इल्तुतमिश के आक्रमण के साथ ही परमार राज-सत्ता 13वीं सदी के चतुर्थ दशक में डांवाडोल हो उठी थी किन्तु पूर्वी मालवा एवं धार-मांडव क्षेत्र में अभी भी उसका प्रभाव था। खिलजी काल में प्रथमतः अलाउद्दीन खिलजी की सामरिक गतिविधियों एवं उपरान्त उसके सेनापति आइन-उल-गुल्क के आक्रमण के परिणामस्वरूप परमार सत्ता पूरी तरह उन्मूलित हो गई। चारों ओर विध्वंस, रक्तपात और लूटमार के दृश्य दिखाई देने लगे । मालवा की सांस्कृतिक गरिमा और उसके कलात्मक वैभव के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न सा लग गया । ऐसी स्थिति में भी जैन धर्म मध्यकालीन मुस्लिम शासकों के आधीन कुछ काल की अवरूद्धता को छोड़कर पल्लवित होता रहा। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 20 हेमेज्न ज्योति* हेमेन्य ज्योति Moralu
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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