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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ श्रुतज्ञान का मुख्य आधार शब्द है। हस्त संकेत आदि अन्य साधनों से भी यह ज्ञान होता है। वहां पर यह साधन शब्द का ही कार्य करते है। अन्य शब्दों की तरह उनका स्पष्ट उच्चारण कानों में नहीं पड़ता मौन उच्चारण से ही वे अपना कार्य करते है। श्रुतज्ञान जब इतना अभ्यस्त हो जाता है कि उसके लिए संकेत स्मरण की आवश्यकता नहीं रह जाती जब वह मतिज्ञान के अन्तर्गत आ जाता है। श्रुतज्ञान के लिए चिन्तन और संकेत स्मरण अत्यन्त आवश्यक है। अभ्यास दशा में ऐसा न होने पर वह ज्ञान श्रुत की कोटि से बाहर निकलकर मति की कोटि में आ जाता है। मति और श्रुत - जैन दर्शन की मान्यता के अनुसार प्रत्येक जीव में कम से कम ज्ञान मति और श्रुत आवश्यक होते है। केवलज्ञान के समय इन दोनों की स्थिति के विषय में मतभेद है। कुछ लोग उस समय भी मति और श्रुत की सत्ता मानतें है और कहते हैं कि केवल ज्ञान के महाप्रकाश के सामने उनका अल्प प्रकाश दब जाता है। कुछ लोग यह बात नहीं मानते। उनके मत से केवलज्ञान अकेला ही रहता है मति, श्रुतादि क्षायोपशमिक है। जब सम्पूर्ण ज्ञानावरण का क्षय हो जाता है जब क्षायोपशमिक ज्ञान नहीं रह सकता यह मत जैन दर्शन की परम्परा के अनुकूल है। केवलज्ञान का अर्थ ही अकेला ज्ञान है। वह असहाय ही होता है। उसे किसी की सहायता अपेक्षित नहीं है। मति और श्रुत ज्ञान मतिपूर्वक ही होता है जबकि मतिज्ञान के लिए यह आवश्यक नहीं कि वह श्रुत पूर्वक ही हो। नन्दीसूत्र का मत है कि जहां अभिनिबोधिक ज्ञान (मति) है वहां श्रुतज्ञान भी है और जहां श्रुतज्ञान है वहां मतिज्ञान भी है। स्वार्थसिद्धि और तत्वार्थराजवार्तिक में भी इसी मत का समर्थन है। यहां प्रश्न यह है कि क्या ये दोनों मत परस्पर विरोधी हैं। एक मत के अनुसार श्रुतज्ञान के लिए मतिज्ञान अनिवार्य है, जबकि मतिज्ञान के लिए श्रुतज्ञान आवश्यक नहीं। दूसरा मत कहता है कि मति और श्रुत दोनों सहचारी है। हम समझते हैं कि ये दोनों मत परस्पर विरोधी नहीं है। उमास्वाति जब यह कहते हैं कि श्रुत के पूर्व मति आवश्यक है तो उसका अर्थ केवल इतना ही है कि जब कोई विशेष श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है तब वह तविषयक मतिपूर्वक ही होता है। पहले शब्द सुनाई देता है और फिर उसका श्रुतज्ञान होता है। मतिज्ञान के लिए यह आवश्यक नहीं कि पहले श्रुतज्ञान हो फिर मतिज्ञान हो। क्योंकि मति ज्ञान पहले होता है और श्रुतज्ञान बाद में। यह भी आवश्यक नहीं कि जिस विषय का मतिज्ञान हो उसका श्रुतज्ञान भी हो। ऐसी दशा में दोनों सहचारी कैसे हो सकते है। नंदीसूत्र में जो सहचारित्व है वह किसी विशेष ज्ञान की उपेक्षा में नहीं है। वह तो एक सामान्य सिद्धान्त है। सामान्यतया मति और श्रुत सहचारी है। क्योंकि प्रत्येक जीव में यह दोनों ज्ञान साथ-साथ रहते है। अवधि ज्ञान : अवधिज्ञान के अधिकारी दो प्रकार के होते है – भवप्रत्ययी और गुणप्रत्ययी। भवप्रत्यय अवधिज्ञान देव और नारक को होता है। गुणप्रत्ययी का अधिकारी मनुष्य या तिर्यंच होता है। भवप्रत्ययी का अर्थ है जन्म से प्राप्त होने वाला। जो अवधिज्ञान जन्म के साथ ही प्रकट होता है वह भवप्रत्ययी है। देव और नारक को पैदा होते ही अवधि ज्ञान प्राप्त होता है। इसके लिए उन्हें व्रत नियमादि का पालन नहीं करना पड़ता। उनका भव ही ऐसा है कि वहां पैदा होते ही अवधिज्ञान हो जाता है। मनुष्य और अन्य प्राणियों के लिए ऐसा नियम नहीं है। मति और श्रुत ज्ञान तो जन्म के साथ ही होते है किन्तु अवधिज्ञान के लिए यह आवश्यक नहीं है। व्यक्ति के प्रयत्न से कर्मों का क्षयोपशम होने पर ही यह ज्ञान पैदा होता है। देव और नारक की तरह मनुष्यादि के लिए यह ज्ञान जन्म सिद्ध नहीं है, अपितु व्रत, नियम, आदि गुणों के पालन से प्राप्त किया जा सकता है। इसलिए उसे गुणप्रत्यय और या क्षायोपशमिक कहते हैं। आवश्यक नियुक्ति में क्षेत्र, संस्थान, अवस्थित, तीव्र, मंद आद 14 दृष्टियों से अवधिज्ञान का लम्बा वर्णन है। विषेशावश्यक भाष्य में सात प्रकार के निक्षेप से अवधिज्ञान को समझने की सूचना है। यह सात निक्षेप है - नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 112 हेमेन्द ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति FRishalye only
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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