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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ ................ आत्मा भी सिंह शिशु के समान है। वह भी पुद्गल पर्यायों के साथ रहते रहते पुद्गलमय बन गया। अपने शरीर को ही आत्मा तथा अपना स्वरूप समझने लगा। शरीर के उत्पन्न होने को अपना जन्म और शरीर छूटने को ही अपनी मृत्यु मानने लगा। वह पौद्गलिक पर्यायों में अपनापन मानने लगा। किन्तु जब उसकी मोह-मूर्छा दूर हुई, अपने शुद्ध स्वरूप और बल का भान हुआ तब पुनः सिंह शिशु की तरह अपने असली स्वरूप को पहचान गया तथा स्वतंत्र विचरण करने लगा। शुद्ध आत्मा का यह अनुभव बिना किसी उपाधि या उपचार के होता है। इसलिए निश्चय सम्यग्दर्शन भेद रहित एक ही प्रकार का है। निश्चय सम्यग्दर्शन वाला अपना आदर्श स्वयं होता है। अपनी ही विशुद्ध आत्मा को वह देव उसी को गुरु और उसकी की स्वाभाविक परिणति को धर्म मानता है। अथवा अरिहंत और सिद्ध में जो ज्ञान स्वरूप निश्चल आत्म द्रव्य है, उसीको वह शुद्ध देव मानता है। आचार्य, उपाध्याय और साधु में जो उनका शुद्ध आत्मा है उसे ही शुद्ध गुरु जानता है। तथा रत्नत्रय में एक अभेद रत्नत्रयमयी स्वात्मानुभूति को ही शुद्ध धर्म मानता है। उसे ऐसा दृढ़ विश्वास हो जाता है कि मेरा शुद्ध स्वरूप अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुखमय है। पर भाव में रागद्वेषादि ही बंधन का तथा स्वस्भाव में रमण ही मोक्ष का हेतु है। इस प्रकार आत्म केन्द्रित हो जाना ही निश्चय सम्यग्दर्शन है। वास्तव में जिसे निश्चय सम्यगदर्शन प्राप्त हो जाता है वही सच्चे देव, गुरु और धर्म को पहचानता है। वही अपनी आत्मा को जानता है। उसकी रुचि एक मात्र स्वात्मानुभूति में होती है। वही उसे देव, गुरु और धर्म में भी प्रतिभासित होती है। इसीलिए प्रश्न व्याकरण सूत्र में निश्चय सम्यक्त्व का लक्ष्य बताया है - मिथ्यात्वमोहनीय क्षमोपशमादिसमुत्थे विशुद्ध जीव परिणामें सम्यक्त्वम् । "मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के क्षमोपशम आदि से उत्पन्न बीज के विशुद्ध परिणामों को (निश्चय) सम्यक्त्व कहते है।" शुद्ध आत्मा की निर्विकल्प परिणति ही निश्चय सम्यग्दर्शन है। यथार्थ निश्चय सम्यग्दर्शन जिसको होता है वह शुद्ध आत्मा की शक्ति को प्राप्त कर लेता है। उसको आत्मा के निर्दोष स्वाभाविक सुख का स्वाद अनुभव मिल जाता है। उसे आत्मिक आनन्द अमृत तुल्य और विषय सुख विषवत् प्रतीत होता है। ऐसा सम्यग्दर्शन निर्विकल्प है, सत्य स्वरूप है और आत्म प्रदेशों में परिगमन करने वाला है। सूर्य की किरणों से जिस प्रकार अंधेरे का नाश हो जाता है, सब दिशाएँ निर्मल लगने लगती है उसी प्रकार निश्चय सम्यग्दर्शन की उपलब्धि होते ही आत्मा प्रकाश से भर जाता है। निश्चय सम्यग्दृष्टि पर पदार्थावलंबी नहीं, किन्तु स्वभावावलंबी होता है। कोई भी देव, दानव, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, भूत, पिशाच आदि उसे सम्यग्दर्शन से विचलित नहीं कर सकता। जैसे अर्हन्नक और कामदेव अपने सम्यक्त्व पर दृढ़ रहे, सम्यक्त्व की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए, देवों को भी उनके समक्ष हार माननी पड़ी। व्यवहार सम्यक्त्व के बिना निश्चय सम्यक्त्व संभव नहीं। किन्तु एक बात निश्चित् है कि आत्म स्वरूप का विशिष्ट प्रकार से दृढ़ निश्चय तब तक नहीं हो सकता जब तक आत्मा और कर्मों के संबंध से जिन तत्वों की सृष्टि हुई है उनके प्रति तथा उनके उपदेष्टा देव, शास्त्र और गुरुओं के प्रति दृढ़ श्रद्धा न हो। क्योंकि परम्परा से सभी आत्म श्रद्धा के कारण है। इन पर श्रद्धा हुए बिना, इनके द्वारा बताये हुए तत्वों पर श्रद्धा नहीं हो सकती। इनके बताये हुए तत्वों पर श्रद्धा - निश्चय हुए बिना आत्मा की ओर उन्मुखता, उसकी पहचान और विनिश्चिति संभव नहीं है। इसीलिए पंचास्तिकाय में व्यवहार सम्यक्त्व को आत्म तत्व के विनिश्चय बीज बताते हुए कहा है - "तेशां मिथ्यादर्शनो दयापादिता श्रद्धानाभावस्वभावं भावन्तर श्रदान सम्यग्दर्शनं, शुद्धचैतन्यरूपात्म तत्व विनिश्चय बीजम् । "इन भावों (नौ पदार्थों) का, मिथ्यादर्शन के उदय से प्राप्त होने वाला जो अश्रद्धा, इसके अभाव स्वभाव वाला जो भावान्तर यानी (नौ पदार्थों) पर श्रद्धान है, वह (व्यवहार) सम्यग्दर्शन है जो कि शुद्ध चैतन्य रूप आत्म तत्व के विनिश्चय (निश्चय सम्यग्दर्शन) का बीज है।" हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 109, हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्दा ज्योति wa Morya
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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