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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन पंथ 1.सामायिक, 2.छेदोपस्थापना, 3.परिहार विशुद्धि, 4.सूक्ष्म संपराय तथा 5.यथाख्यात। 1. सामायिक चारित्र : जिसका राग-द्वेष परिणाम शान्त है अर्थात समचित है, उसे सामायिक चारित्र कहते हैं। इस चारित्र की प्राप्ति के बाद मन में किसी प्रकार की ईर्ष्या, मोह आदि नहीं रह पाते। 2. छेदोपस्थापना चारित्र: पहली दीक्षा ग्रहण करने के बाद विशिष्ट श्रुत का अभ्यास कर चुकने पर विशेष शुद्धि के लिए जीवन भर के लिए जो पुनः दीक्षा ली जाती है और प्रथम ली हुई दीक्षा में दोषापत्ति आने से उसका उच्छेद करके पुनः नये सिरे से जो दीक्षा का आरोपण किया जाता है उसे छेदोपस्थापना चारित्र कहते हैं। 3. सूक्ष्मसंपराय चारित्र :जहां सूक्ष्म कषाय विद्यमान हो अर्थात किंचित लोभ आदि हो, वह सूक्ष्मसंपराय चारित्र है। 4. परिहारविशुद्धि चारित्र : कर्म मलों को दूर करने के लिए विशिष्ट तप का अवलम्बन लेने की अर्थात् आत्मा की शुद्धि करने को परिहार विशुद्धि चारित्र कहते हैं। 5. यथाख्यात चारित्र : आत्मा में स्थित लोभादि कषायों का भी अभाव हो जाना यथाख्यात चारित्र है। यह अवस्था सिद्धपद के पूर्व चारित्र-विकास की पूर्णता सूचक है। इस संदर्भ में योगाधिकारी की दृष्टि से भी चारित्र के चार भेद वर्णित हैं और चारित्र अर्थात् चरित्रशील के क्रमशः चार लक्षणों का प्रतिपादन किया गया है। वे चार लक्षण इस प्रकार हैं - 1.अपुनर्बन्धक, 2.सम्यग्दृष्टि, 3.देशाविरति तथा 4.सर्वविरति । 1. अपुनर्बन्धक : जो उत्कृष्ट क्लेशपूर्वक पाप कर्म न करे, जो भयानक दुःखपूर्ण संसार में लिप्त न रहे और कौटुम्बिक लौकिक एवं धार्मिक आदि सब बातों में न्याययुक्त मर्यादा का अनुपालन करे, वह अपुनर्बन्धक है। 2. सम्यग्दृष्टि : धर्म-श्रवण की इच्छा, धर्म में रूचि, समाधान या स्वस्थता बनी रही, इस तरह गुरु एवं देव की नियमित परिचर्या – ये सब सम्यग्दृष्टि जीव के लिंग हैं। 3. देशविरति : मार्गानुसारी, श्रद्धालु, धर्म उपदेश के योग्य, क्रिया तत्पर, गुणानुरागी और शक्य बातों में ही प्रयत्न करने वाला देशविरति चारित्री होता है। 4. सर्वविरति : अन्तिम वीतराग दशा प्राप्त होने तक सामायिक यानी शुद्धि के तारतम्य के अनुसार तथा शास्त्रज्ञान को जीवन में उतारने की परिणति के तारतम्य के अनुसार सर्वविरति चारित्री होता है। प्रथम अधिकारी (चारित्री) में मिथ्याज्ञान के रहने से दर्शन प्रकट नहीं होता, क्योंकि दर्शन मोहनीय कर्म अस्तित्व में रहता है। द्वितीय अधिकारी में मोहनीय कर्म अस्तित्व का क्षय होता है, परन्तु वीतरागता की प्राप्ति नहीं होती। तीसरे अधिकारी में कर्म अल्पांश में नष्ट होते हैं, किन्तु पूर्णतः नहीं और चौथे में जाते जाते पूरे कर्म ढीले पड़ जाते हैं तथा पूर्ण चारित्र का उदय हो जाता है"। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 90 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Forplay
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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