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________________ श्री राष्टसंत शिगमणि अभिनंदन पंथ संकल्प किया मेरी स्वतंत्रता में बाधा डालने वाली जो भी परिस्थितियां उत्पन्न होंगी, मैं उनका साहसपूर्वक सामना करूंगा, उनके सामने कभी नहीं झुकूगा। मुझे अपने शरीर का विसर्जन मान्य है, पर परतंत्रता का वरण कभी भी स्वीकार नहीं होगा। महावीर ने अपने इस संकल्प का पालन जीवन य॑न्त किया। परिषहों का सामना किया। निर्ममत्व होकर जीवन बिताया। समस्त परिग्रहों का त्याग किया। परतंत्रता को कभी भी स्वीकार नहीं किया। सचमुच अद्भुत थी उनकी संकल्प साधना और परतंत्रता के त्याग की भावना। संकल्प की भावना मनुष्य के मन में उठने वाले विभिन्न प्रकार के द्वंद्वों को समाप्त करती है। व्यक्ति इसके कारण निर्णय लेने की अवस्था में आ जाता है। संशय की आंधी उसे अपने स्थान से विचलित नहीं कर पाती। अहंकार और ममत्व के विविध रूप उसके पथ में बाधाएँ उत्पन्न करते अवश्य हैं, लेकिन वह इनसे घबराता नहीं है। इन सबका सामना धीरता के साथ करता है और अंततः उन्हें पराजित कर विजयश्री को प्राप्त कर लेता है। वह परतंत्रता की शक्तिशाली बेड़ियों को तोड देता है। उसका संपूर्ण जीवन स्वतंत्रता के प्रकाश से आलौकित हो जाता है। वह अपने जीवन में आये हुए स्वतंत्रता के इस आलोक से परतंत्रता रूपी घोर अंधकार को सर्वदा के लिए दूर कर देता है। प्रकाश के इस पुंज में विश्व समस्त ऐश्वर्य कांतिहीन लगने लगते है। वह उन्हें त्यागने में किसी प्रकार का प्रमाद नहीं करता। उसके समस्त त्याग और स्वतंत्रता की मान्यता स्पष्ट हो जाती है। वह इन्हें अपने जीवन में स्थान देकर अनुपम सुख का उपभोग करता है। महावीर ने अपनी देशना में स्वतंत्रता को स्थान देकर मनुष्य के समक्ष त्याग और संकल्प का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया। उनकी इस अवधारणा में जहां तक एक ओर त्याग की महानता का दिग्दर्शन होता है वहीं दूसरी तरफ संकल्प साधना की महत्ता भी स्पष्ट परिलक्षित होती है। परन्तु महावीर की स्वतंत्रता की इस उद्घोषणा का यह अर्थ कदापि नहीं लगाया जा सकता है - सभी व्यक्ति अपने घर परिवार का त्याग कर संन्यस्त जीवन बिताने का संकल्प ले लें। उन्होंने मात्र उन लोगों के लिए ही इसका प्रतिपादन किया जो सब सीमाओं से मुक्त स्वतंत्रता को अनुभव करना चाहते हैं। महावीर की देशना में विश्व कल्याण के विविध तथ्य छिपे हैं, जिनमें से कुछ अवधारणाओं के आधार पर इनके विश्व व्यापि स्वरूप पर प्रकाश डालने का प्रयास मात्र किया गया है। सन्दर्भ 1. समियाए धम्मे आरिएहिं पवेइए । आचारांग 1/8/3 2. सत्तु-मित-मणि-पाहाण-सुवणण-मट्टियासु राग-देसा भावो समदा णाम | - धवला, 8/3, 41/84/1 सव्वे पाणा ण हंतव्वा । आयारो, 4/1 जं च समो अप्पाणं परं य मइय साव्वमहिलासु । अप्पिर्यापियमाणादिसु तो समणो सो य सामाइयं ।। मूलाराधना, 521 5. परस्परोपग्रहो जीवानाम् । तत्वार्थसूत्र, 5/21 6. अंगसुत्ताणि भाग - || भगवई, 1/133-138 7. जो एगं जाणइ से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणई, । आयारो, 3/74 आवश्यक चूर्णी, उत्तर भाग, पृ. 203-204 मंसाणि छिन्नपुव्वाइं । आयारो, 9/3/11, हयपुवो तत्थ दंडेण, अदुवा मुट्ठिणा अदु कुंताइ फलेण। अदु लेलुणा कवालेणं, हंता हंता बहवे कंदिसु । वही 9/3/10, वही 9/3/3-6, 9/3/11, 9/3/12-13 10. बारस वासाई वोसट्टकाए चत्तदेहे जे केइ उवसग्गा उपजंति । आयारचूला, 15/34 (अंगसुत्ताणि ।) - विभागाध्यक्ष, संस्कृत, बी.एम.एम. (पी.जी.) कालेज सड़की (यू.पी.) हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 87 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Jaceupinteroition
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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