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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ प्रत्येक धर्म के दो पक्ष हुआ करते हैं एक आचार पक्ष दूसरा विचार पक्ष । जैनधर्म के आचार का मूलाधार अहिंसा और विचार का मूल अनेकांतवाद है। अहिंसा आत्मा का स्वभाव है। अहिंसा का प्रतिपक्ष हिंसा है। हिंसा का अर्थ है असद् प्रवृत्ति पूर्वक किसी प्राणी का प्राण - वियोजन करना। जैन धर्म प्रमाद को हिंसा का मूल स्रोत मानता है क्योंकि प्रमाद वश अर्थात् असावधानी के कारण ही जीव के प्राण का हनन होता है। वास्तव में आत्मा के रागादि भावों का न होना अहिंसा तथा उन रागादि होना हिंसा है। जैन धर्म दिशा देता है कि जीवन सबको प्रिय है। इस विराट विश्व में जितने भी प्राणी है चाहे वे चर हैं, अचर हैं, चाहे वे सूक्ष्म हैं, स्थावर हैं, सभी प्राणी जीवित रहना चाहते हैं, कोई मरना नहीं चाहता। यह धर्म 'मत्स्य न्याय' अर्थात् 'सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट' से बचने की तथा 'जीओ और जीने दो' के अपनाने की बात करता है क्योंकि सुख सभी के लिए अनुकूल एवं दुख अननुकूल है। ज्ञान और विज्ञान का सार भी यही है कि प्राणी की हिंसा न की जावे। विश्व में जितने भी दुख हैं वे सब आरम्भज हिंसा से उत्पन्न होते हैं। इस धर्म के अनुसार अपने मन में किसी भी प्राणी के प्रति किसी भी प्रकार की दुर्भावना आने मात्र से ही अपने शुद्ध भावों का घात कर लेना हिंसा है। चाहे यह दुर्भावना क्रियान्वित हो अथवा न हो, और उससे किसी प्राणी को कष्ट पहुंचे या न पहुंचे परंतु इन दुर्भावनाओं के आने मात्र से व्यक्ति हिंसा का दोषी हो जाता है। हिंसा का मूलाधार कषाय भाव है। विश्व के किसी भी प्राणी के अंतरंग में यदि कषाय भाव-क्रोध, मान, माया व लोभ तथा रागद्वेष आदि विद्यमान हैं तो वह प्राणी निश्चयेन हिंसक कहलायेगा। जैन धर्म में हिंसा-अहिंसा की जहां चर्चा हुई है वहीं पर प्रत्येक व्यक्ति को प्राणी पीड़ा के परिहार हेतु 'समिति पूर्वक' अर्थात समस्त प्रकार से प्रवृत्ति परक जीवन जीने का निर्देश भी दिया गया है। वास्तव में एक अहिंसक के दैनिन्दिन में होने वाले जितने भी क्रिया कलाप हैं जैसे - चलना-फिरना, बोलना-चालना, आहार ग्रहण करना, वस्तुओं को उठाना-धरना, तथा मल-मूत्र निक्षेपण करना, उन सब में विवेक और समता का प्रभाव किन्तु प्रमाद-मूर्छा का अभाव अत्यन्त अपेक्षित रहता है। निर्भयता अहिंसा का प्रथम सोपान है। भय, संदेह, अविश्वास, असुरक्षा, पारस्परिक वैमनस्य, शोषण, अत्याचार तथा अन्याय आदि की अग्नि जो आज प्रज्वलित है, उसका मूल कारण है जीवन में जैनधर्म की अहिंसा का अभाव। अहिंसा में क्षमा, मैत्री, प्रेम, सद्भावना, सौहार्द्रता, एकता, वीरता तथा उपशम मृदुता आदि मानवी गुण विद्यमान हैं। अहिंसा के द्वारा विश्व के समस्त प्राणियों में क्षमा करने की भावना तथा शक्ति जागृत होती है यथा 'खामेमि सव्वे जीवा, सव्वे जीवा खमंतुमे।' वास्तव में अहिंसा का पथ ही एक ऐसा पथ है जिसके द्वारा विश्व बंधुत्व एवं विश्व शांति का स्वप्न पूर्ण हो सकता है। जैनधर्म विश्व के समस्त प्राणियों के मध्य समता लाने हेतु विश्व की समस्त आत्माओं को एक सा मानता है, यथा 'ऐगे आया।' 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' के अनुसार अखण्ड विश्व की समस्त आत्माओं को अपने आत्मा की भांति समझना अपेक्षित है। वस्तुतः अहिंसा की यह साधना समत्व योग की साधना है। जिसका मूलाधार विश्व की समग्र आत्माओं के साथ अपने जैसा व्यवहार करना है। हम अपने लिए जिस प्रकार का व्यवहार दूसरों से चाहते हैं, हम अपने लिए जिस प्रकार की स्थिति की अपेक्षा दूसरों से करते हैं, अन्य समस्त प्राणियों के लिए हम वैसा ही व्यवहार करें, वैसी ही स्थिति निर्मित करें तो निःसंदेह अनन्त आनन्द सहज में ही प्राप्त किया जा सकता है। अहिंसा की भावना विकसित होने पर जीवन में सहिष्णुता का संचार होता है। परीषह सहन करने की शक्ति स्थापित होती है। सहिष्णुता के द्वारा ही भारत जैसे विशाल जनतंत्रात्मक देश में विभिन्न मतों को मानने वाले स्नेह और सद्भावनाओं के साथ परस्पर मिलते हैं तथा आनन्द पूर्वक विचार मंथन करते है। वास्तव में सहिष्णुता जैन धर्म की अनमोल उपलब्धि है जो अहिंसा द्वारा अर्जित की जा सकती है। निश्चय ही 'अहिंसा परमोधर्मः' अर्थात अहिंसा परम धर्म है। यह विश्व की आत्मा है। प्राणि मात्र के हित की संवाहिका है। सार्वभौमिक दृष्टिकोण विश्व के समस्त दर्शनों, धर्मों, संप्रदायों एवं पंथों का समन्वय किया करता है। यह दृष्टिकोण जैन धर्म के जीवनोपयोगी तथा व्यावहारिक एवं वैज्ञानिक सिद्धांत अनेकांतवाद अथवा स्याद्वाद को अपनाने से प्राप्त होता है। वस्तु तत्व निर्णय में जो वाद (कथन) अपेक्षा की प्रधानता पर आधारित है, वह स्याद्वाद है। 'अनन्त हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति 73 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Private & Per
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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