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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ जिन्होने सब कर्मों का क्षय करके शाश्वत सुख प्राप्त किया है, उनका विवरण शास्त्रों में सुनकर, उन महावीर की प्रतिमा के सामने दृष्टि रखकर या जिस परमात्मा की मूर्ति हो उनकी पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत अवस्थाओं का ध्यान करने से आत्मा में आत्म स्वरूप प्राप्ति का उल्लास पैदा होता है और आत्मा का शुद्ध स्वरूप क्या है ? इसका विचार उत्पन्न होता है। नाम से स्थापना विशेष लगाव पैदा करती है :- आकार के दर्शन से जैसी भावना जाग्रत होती है, वैसी लागणी उसके नाम मात्र लेने से नहीं होती है। नाम लेने के बाद भी उस व्यक्ति का आकार स्मरण में आने के बाद उसके प्रति अभिन्नता का भान होता है। वीतराग दशा का चिंतन करने के ध्येय से मूर्ति का दर्शन करने वाले का पौद्गलिक मोह बढ़ने के बजाय कम होता है। मूर्ति के दर्शन और पूजन की भी विधि है। उसके अनुसार दर्शन पूजन करने से पूजक आत्म स्वरूप की प्राप्ति के नजदीक आता है और उसका पौद्गलिक मोह दूर होता है। आकार का वर्णन तो पुस्तक में होता है, फिर उसे सचित्र क्यों बनाया जाता है ? कारण यह है कि चित्रों को देखने से उस विषय का विशेष ज्ञान होता है। अरिहंत के गुणों का चिंतन, मात्र सूत्र के श्रवण करने से अधिक पद्मासन में कायोत्सर्ग ध्यानवाली प्रशान्त मुद्रावाली श्री तीर्थकर परमात्मा की मूर्ति के दर्शन करने से अधिक होता है। नाम से आकार की ज्यादा विषेशताएँ हैं : जैसे आकार का निरीक्षण करने में आता है, वैसे ही आकार संबंधी धर्म का मन में चिंतन होता है। चित्त की एकाग्रता प्राप्ति के लिए केवल नाम स्मरण के बजाय प्रतिमा का अजब सा असर होता है। नाम से आकार की ज्यादा विषेशताएँ हैं। जिस प्रकार मकान के प्लान देखने से उसका बराबर ध्यान हो जाता है, इसी प्रकार परमेश्वर के नाम के स्थान पर परमेश्वर की आकारवाली मूर्ति से परमात्मा के स्वरूप का ज्यादा स्पष्ट बोध हो जाता है और परमात्मा का ध्यान करने में सरलता हो जाती हैं। इसलिए आत्म-स्वरूप की प्राप्ति के लिए जिनेश्वर देव का नाम जितना उपयोगी है, उससे ज्यादा मूर्ति उपयोगी है। मूर्ति को देखकर उस देव का विचार प्रथम दृष्टि में आता है, जिसके लिए मूर्ति निमित्त कारण है। उपादान कारण तो इस विषय का पहले का ज्ञान है, परन्तु साथ ही यह समझना चाहिए कि उपादान कारण की अनुभूति के लिए निमित कारण है। केवलज्ञान की प्राप्ति में राग भाव गौतम को रोक रहा था। परन्तु गणधर पद की प्राप्ति में वह राग भाव रूकावट नहीं बना था। इसका अर्थ यह हुआ कि प्रशस्त राग जरूरी है। जिसको जिनेश्वर देव के प्रति राग नहीं, वह समकीति कैसे हो सकता है ? जिनेश्वर की मूर्ति के प्रति राग जिनेश्वर देव के प्रति ही राग है। जहां तक व्यक्ति वीतराग भाव को प्राप्त नहीं हो जावे वहाँ तक मूर्ति के आलंबन की आवश्यकता है। राग द्वेष रहित भाव तेरहवें गुणस्थान प्राप्त होने के बाद आलंबन की जरूरत नहीं है। निमित्त कारण होते हुए भी आत्मा में उपादान कारण पैदा नहीं होतो उसमें निमित्त का क्या दोष ? भगवान महावीर के संपर्क में आकर अनेक आत्मा में शुद्ध आत्मभाव प्राप्ति रूप उपादान कारण पैदा हुआ किन्तु कितने ही बहुकर्मी आत्माओं को भगवान महावीर रूप निमित्त प्राप्त होने पर भी उपादान प्राप्त नहीं हुआ तो इसमें परमात्मा का क्या दोष? इस प्रकार प्रतिमा रूप निमित्त कारण द्वारा शुद्ध आत्मा भाव-रूप उपादान कारण किसी को पैदा नहीं हुआ तो उसमें प्रतिमा का क्या दोश? जिनेश्वर भगवान की मूर्तियों में जिनेश्वर देव के गुणों को आरोपित करने के बाद उनको गुण रहित नहीं कहा जा सकता। जैसे अगर किसी मूर्ति को अमुक राजा की मूर्ति माना तो फिर उस मूर्ति के प्रति वैसा ही आदर भाव प्रदर्शित किया जाता है। यह व्यवहार में देखा जाता है। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 54 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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