SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 386
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ स्याद्वाद सिद्धांत - एक विश्लेषण : उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी के शिष्य -रमेश मुनि शास्त्री दर्शन वस्तुतः वह है, जो 'वस्तु' अथवा 'पदार्थ' में परिव्याप्त अनन्त धर्मों की व्याख्या करता हुआ मानव मात्र में भर रहे अज्ञान अंधकार को तिरोहित करता है, और उस अज्ञान के स्थान पर उनमें 'दिव्य ज्योति' रूप ज्ञान का प्रकाश भर देता है। यथार्थ अर्थ में ज्ञान ही सत्य है, सत् है और अज्ञान असत्य है, असत् है। सत्य को देखने वाला, दिखलाने वाला ही 'दर्शन' है। यानी दर्शन एक ऐसी अक्षय ज्योति है, जिस के प्रकाश में, पदार्थ स्वरूप पर आये हुए, ढके हुए असत्य के सघन आवरण को हटाकर 'सत्य' का 'सत्' का साक्षात्कार किया जा सकता है। निष्कर्ष रूप में यह कथन भी औचित्य पूर्ण है कि 'दर्शन' शब्द का शाब्दिक अर्थ 'चक्षुरिन्द्रिय' से देखना है। किन्तु उस का अन्य अर्थ भी अति स्पष्ट है, उस दृष्टि से इस का अर्थ अतीन्द्रिय ज्ञान अर्थात दिव्य ज्ञान माना जा सकता है। यही वह तत्व है, स्थिति है, जिस के द्वारा हम सांसारिक यानी भौतिक और पारलौकिक तत्वों का प्रत्यक्ष कर सकते है, साक्षात्कार कर पाते हैं। दर्शन - जगत् में स्याद्वाद सिद्धांत की महती प्रतिष्ठा है। यह मौलिक-सिद्धांत जैन दर्शन का प्राणभूत तत्व है। इस का वज़ आघोष है कि प्रत्येक पदार्थ में अनेकों धर्म, अनन्त गुण एवं पर्याय आदि सहज ही पाये जाते है । ये धर्म गुण आदि वस्तुओं में क्रमशः और अक्रमशः होते हैं। कई बार तो ऐसा स्पष्टतः आभास होने लगता है कि ये गुण, धर्म आदि परस्पर विरोधी है। फिर एक ही पदार्थ में कैसे पाये जाते है ? जैसे स्वर्ण कलश को भेद कर, जब किसी स्वर्णकार को हम उस से स्वर्ण कुण्डल बनाते देखते हैं तो प्रतीत हो जाता है कि जिस तरह स्वर्ण कलश अनित्य है वैसे ही स्वर्ण कुण्डल अनित्य है। पर दोनों ही स्थितियों में स्वर्ण की स्थिति को ज्यों का त्यों देख कर, दर्शक यह नहीं समझ पाता है कि नित्य जान पड़ने वाले स्वर्ण में कलश और कुण्डल जैसी वस्तुओं की अनित्यता कैसे समायी रहती है? एक बालक को किशोर और युवा बनता देख कर भी कोई सामान्य जन यह स्वीकार नहीं करता कि कल जो बालक था, वह किशोर से भिन्न था और युवा से भी अलग था। जब कि बाल्यावस्था, किशोरावस्था और युवावस्था तीनों ही परस्पर विरोधी है। इन तीनों में व्यक्ति की एकता को वह सहज रूप से मानने में किसी भी तर्क को सुनना नही चाहता। किन्तु उसी व्यक्ति को जब यह कहा जाता है कि इसी तरह से प्रत्येक पदार्थ में अस्तित्व और नास्तित्व, यानी सत्ता और नाश, साथ-साथ पाये जाते हैं, तब वह इस कथन की सत्यता पर संदेह करने लगता है। जो मानव इस तरह के संदेहों में पड़े रहते हैं। उन्हें वस्तु तत्व के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान नहीं हो पाता है। पदार्थ को मात्र सद्रूप मान लेना या मात्र असद रूप मानना अज्ञान है। इसी तरह से अनेक विधि-निषेधात्मक विवक्षाएँ तत्वज्ञान में बाधक बन कर उन मानवों के सामने खड़ी हो जाती है। इन समस्त स्थितियों में उलझे मानव मस्तिष्क को अज्ञान, संदेह से उबार कर तत्वज्ञान के धरातल पर पहुंचाने के लिये जैन दर्शन में 'स्याद्वाद' की संस्थापना की गई। अनेकांतवाद को गौरवपूर्ण स्थान दिया गया। इसी संदर्भ में एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि यह अनेकांतवाद क्या है ? इस की व्याख्या इस प्रकार है - पदार्थ में जो भिन्न-भिन्न परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले धर्म, गुण पर्याय आदि हैं, उन को स्पष्ट करना अनेकांत है। यह अनेकांत जब सिद्धांत का रूप ग्रहण कर लेता है, तब उसे अनेकांतवाद, यह नाम दिया जाता है। यानी पदार्थ का स्वभाव है-अनेकांत! इस वस्तु – स्वरूप की गहन विवेचना करने वाला सिद्धांत अनेकांत होगा। वस्तु स्वरूप पर जब वास्तविक चिंतन किया जाता है, तो यह स्पष्ट रूपेण देखा जाता है कि यदि वस्तु सर्वथा नित्य हो तो उसमें किसी नवीन अवस्था की उत्पत्ति और पूर्व अवस्था का विनाश संभव नहीं हो पायेगा। परिणाम यह होगा कि आज, जो पदार्थ, जिस रूप में विद्यमान हैं, हजार-हजार वर्षों बाद भी, वह उसी रूप में बना रहेगा अर्थात आज जो युवा है, वे चिर युवा बन जायेंगें। जो नवजात हैं, वे कभी बालक, किशोर, युवा और वृद्ध नहीं बन पायेंगें। जो मृत पड़ा हुआ है। वह मृत ही पड़ा रहेगा। जो गर्भस्थ है। वह, बालक, किशोर युवा अवस्था को पार करता हुआ वृद्ध बन पायेगा। इसी तरह अचेतन वस्तु, वस्तुसमूह को भी समझना पड़ेगा। जिस पदार्थ का आज हमें अस्तित्व हेगेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति 38 हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति A pple use only
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy