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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ तीसरा व्यक्ति बहुत ही बुद्धिमान विवेक परायण और पुरुषार्थी है। विज्ञान से प्राप्त होने वाली सुख सुविधाओं में भी कटौती करके वह केवल जरूरी आवश्यकताओं को रखकर जीवन यापन करता है। तथैव शुद्ध आत्म धर्म (सत्य, अहिंसा आदि सद्धर्म या संवर निर्जरा रूप धर्म) के अनुरूप मानव जीवन के मूल्यों को सुरक्षित रखते हुए परमार्थ जीवन जीता है। स्व-पर कल्याणमय जीवन जीने में आनन्द मानता है। ऐसी महान आत्मा जीवन के मूल्यों में वृद्धि करती है। मूल सुरक्षक, मूल परिवर्धक और मूल उच्छेदक, तीनों का तात्पर्य : एक रूपक द्वारा - श्रमण भ. महावीर ने पावापुरी के अपने अंतिम प्रवचन में इसी तथ्य को समझाते हुए कहा है जहा य तिण्णि वाणियां, मूलम घेत्तूण निग्गया। एगोऽ थ लहई लाभं, एगो मूलेण आगओ|| एगो मूलंपि हारित्ता आगो तत्थ वाणिओ। ववहारे उवमा एसा, एवंधम्मे वियाणह|| उत्तराध्ययन सूत्र अ.7 गा. 14, 15 इसका भावार्थ यह है कि किसी समय तीन व्यापारी अपनी मूलपूंजी को लेकर व्यापार के लिए विदेश में गए। उन तीनों में से एक व्यापारी को व्यापार में अच्छा लाभ हुआ, दूसरा अपनी मूलपूंजी को स्थिर रखकर घर आ गया और तीसरा व्यापारी मूल धन को खोकर घर आ गया। यह जैसे व्यावहारिक उपमा है। इसी प्रकार धर्मरूपी मूलधन के विषय में भी समझ लेना चाहिए। शास्त्रीय रूपक द्वारा तीनों कोटि के व्यक्तियों के जीवन का मूल्यांकन :इसी अध्ययन की अगली गाथा में निष्कर्ष और आशय इस प्रकार बतलाया गया है : माणुसुतं भवे मूलं, लाभो देवगई भवे। मूलच्छेएण जीवाणं, नरग-तिरिक्खलणं धुवं ।। वही, अ.7 गा. 16 इसका भावार्थ यह है कि मनुष्यत्व युक्त मानव जन्म मूल धन है और उसी मूल धर्म धन में वृद्धि (लाभ) होना देवत्व की प्राप्ति है तथा मूल धन को नष्ट कर देने (खो देने) से या तो तिर्यंच गति प्राप्त होती है या नरक गति। आशय यह है कि पहला व्यक्ति मानव धर्म (मनुष्यत्व) रूप मूल धर्म धन को सुरक्षित रखता है। वह न्याय नीति पूर्वक जितना कमाता है उतना जीवन निर्वाह में खर्च कर देता है। उसके मानव धर्म की मूल पूंजी सुरक्षित रही। अर्थात जो व्यक्ति मानव जीवन जैसा उत्तम जीवन पाकर उसे वरदान रूप या पुरस्कार रूप समझकर न्याय, नीति धर्म के अनुरूप चलकर मूल धन के तुल्य मानव धर्म को सुरक्षित रखता है। दूसरा व्यक्ति मूल धन सम धर्म को सुरक्षित रखते हुए शुद्ध आत्म धर्म का आचरण करके उसमें वृद्धि करता है, आत्मा के निजी गुण धर्मों में वृद्धि करता है और तीसरा व्यक्ति मूल धन रूप धर्म को ही खो देता है। वह जीवन के मूल को ही हार जाता है। निष्कर्ष यह है कि इन तीनों कोटि के व्यक्तियों में प्रथम कोटि का व्यक्ति मनुष्यत्व रूप मूल धर्म धन को सुरक्षित रखने वाला है। दूसरी कोटि का व्यक्ति धर्म रूपी मूल धन को सुरक्षित रखने के साथ साथ आत्म स्वभाव में रमण रूप या सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, रूप आत्म धर्म रूपी धन में अभिवृद्धि करता है। अतः ये दोनों कोटि के व्यक्ति जीवन मूल्यों के क्रमशः सुरक्षक तथा सुरक्षा सहित संवर्द्धक है। किन्तु तीसरी कोटि का व्यक्ति धर्म रूपी मूल धन की सुरक्षा और अभिवृद्धि दोनों ही नहीं करता। वह धर्म रूपी मूलपूंजी को लेकर मानव जीवन को हार जाता है, जीवन मूल्यों से विहीन हो जाता है। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्ध ज्योति33 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति MEducated
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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